Book Title: Karmvada
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 25
________________ २३६ जैन धर्म और दर्शन बहुत ऊँचा स्थान है । ऐसी दशा में वर्तमान देह के साथ इच्छा के मूल का भी नाश मान लेना युक्तिसंगत नहीं। मनुष्य अपने जीवन की आखिरी घड़ी तक ऐसी ही कोशिश करता रहता है जिससे कि अपना भला हो । यह नहीं कि ऐसा करनेवाले सब भ्रान्त ही होते हैं । बहुत आगे पहुँचे हुए स्थिरचित्त व शान्त प्रज्ञावान् योगी भी इसी विचार से अपने साधन को सिद्ध करने की चेष्टा में लगे होते हैं कि इस जन्म में नहीं तो दूसरे में ही सही, किसी समय हम परमात्मभाव को प्रकट कर ही लेंगे। इसके सिवाय सभी के चित्त में यह स्फुरणा हुआ करती है कि मैं बराबर कायम रहूँगा। शरीर, नाश होने के बाद चेतन का अस्तित्व यदि न माना जाय तो व्यक्ति का उद्देश्य कितना संकुचित बन जाता है और कार्यक्षेत्र भी कितना अल्प रह जाता है ? औरों के लिए जो कुछ किया जाय परन्तु वह अपने लिए किये जानेवाले कामों के बराबर हो नहीं सकता । चेतन की उत्तर मर्यादा को वर्तमान देह के अन्तिम क्षण तक मान लेने से व्यक्ति को महत्त्वाकांक्षा एक तरह से छोड़ देनी पड़ती है। इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में सही, परन्तु मैं अपना उद्देश्य अवश्य सिद्ध करूँगा-यह भावना मनुष्य के हृदय में जितना बल प्रकटासकती है उतना बल अन्य कोई भावना नहीं प्रकटा सकती। यह भी नहीं कहा जा सकता कि उक्त भावना मिथ्या है, क्योंकि उसका आविर्भाव नैसर्गिक और सर्वविदित है। विकासवाद भले ही भौतिक रचनाओं को देखकर जड़ तत्त्वों पर खड़ा किया गया हो, पर उसका विषय चेतन भी बन सकता है। इन सब बातों पर ध्यान देने से यह माने बिना संतोष नहीं होता कि चेतन एक स्वतंत्र तत्त्व है। वह जानते या अनजानते जो अच्छा-बुरा कर्म करता है उसका फल, उसे भोगना हो पड़ता है और इसलिए उसे पुनर्जन्म के चक्कर में घूमना पड़ता है | बुद्ध भगवान् ने भी पुनर्जन्म माना है | पक्का निरीश्वरवादी जर्मन पण्डित निटशे, कर्मचक्रकृत पुनर्जन्म को मानता है। यह पनर्जन्म का स्वीकार अात्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व को मानने के लिए प्रबल प्रमाण है। १०-कर्म-तत्त्व के विषय में जैनदर्शन की विशेषता ___जैनदर्शन में प्रत्येक कर्म की बध्यमान, सत् और उदयमान थे तीन अवस्थाएँ मानी हुई हैं। उन्हें क्रमशः बन्ध, सत्ता और उदय कहते हैं । जैनेतर दर्शनों में भी कर्म की उन अवस्थाओं का वर्णन है। उनमें बध्यमान कर्म को 'क्रियमाण', सत्कर्म को 'संचित' और उदयमान कर्म को 'प्रारब्ध', कहा है। किन्तु जैनशास्त्र में ज्ञानावरणीय आदिरूप से कर्म का ८ तथा १४८ भेदों में वर्गीकरण किया है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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