Book Title: Karmvada
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 29
________________ २४० जैन धर्म और दर्शन नाम अक्षय जीवन के वरोधी श्रयुकर्म, गति, जाति आदि अनेक अवस्थाओं के जनक उच्च-नीच गोत्रजनक गोत्रकर्म और लाभ आदि में रुकावट करनेवाले अन्तराय कर्म का तथा उन प्रत्येक कर्म के भेदों का थोड़े में, किन्तु अनुभवसिद्ध वर्णन किया है । अन्त में प्रत्येक कर्म के कारण को दिखाकर है । इस प्रकार इस ग्रन्थ का प्रधान विषय कर्म का विपाक है, इसमें जो कुछ कहा गया है उस सबको संक्षेप में पाँच सकते हैं ग्रन्थ समाप्त किया तथापि प्रसंगवश विभागों में बाँट ( १ ) प्रत्येक कर्म के प्रकृति आदि चार अंशों का कथन, ( २ ) कर्म की मूल तथा उत्तर प्रकृतियाँ, ( ३ ) पाँच प्रकार के ज्ञान और चार प्रकार के दर्शन का वर्णन, ( ४ ) सब प्रकृतियों का दृष्टान्त पूर्वक कार्य कथन, (५) सत्र प्रकृतियों के कारण का कथन । आधार - यों तो यह ग्रन्थ कर्मप्रकृति, पञ्चसंग्रह आदि प्राचीनतर ग्रन्थों के आधार पर रचा गया है परन्तु इसका साक्षात् आधार प्राचीन कर्मविपाक है जो श्री गर्ग ऋषि का बनाया हुआ है। प्राचीन कर्मग्रन्थ १६६ गाथा प्रमाण होने से पहले पहल कर्मशास्त्र में प्रवेश करनेवालों के लिए बहुत विस्तृत हो जाता है, इसलिए उसका संक्षेप केवल ६१ गाथाओं में कर दिया गया है । इतना संक्षेप होने पर भी इसमें प्राचीन कर्मविपाक की खास व तात्त्विक बात कोई भी नहीं छूटी है । इतना ही नहीं, बल्कि संक्षेप करने में ग्रन्थकार ने यहाँ तक ध्यान रखा है कि कुछ अति उपयोगी नवीन विषय, जिनका वर्णन प्राचीन कर्मविपाक में नहीं है उन्हें भी इस ग्रन्थ में दाखिल कर दिया है। उदाहरणार्थ - श्रुतज्ञान के पर्याय श्रादि २० भेद तथा आठ कर्मप्रकृतियों के बन्ध के हेतु, प्राचीन कर्मविपाक में नहीं हैं, पर उनका वर्णन इसमें है । संक्षेप करने में ग्रन्थकार ने इस तत्व की ओर भी ध्यान रखा है कि जिस एक बात का वर्णन करने से अन्य बातें भी समानता के कारण सुगमता से समझी जा सकें वहाँ उस बात को ही बतलाना, अन्य को नहीं । इसी अभिप्राय से, प्राचीन कर्मविपाक में जैसे प्रत्येक मूल या उत्तर प्रकृति का विपाक दिखाया गया है वैसे इस ग्रन्थ में नहीं दिखाया है । परन्तु श्रावश्यक वक्तव्य में कुछ भी कमी नहीं की गई हैं। इसी से इस ग्रन्थ का प्रचार सर्वसाधारण हो गया है। इसके पढ़नेवाले प्राचीन कर्मविपाक को बिना टीका-टिप्पण के अनायास ही समझ सकते हैं। यह ग्रन्थ संक्षेपरूप होने से सब को मुख-पाठ करने में व याद रखने में बड़ी आसानी होती है। इसी से प्राचीन कर्मविपाक के छुप जाने पर भी इसकी चाह और माँग में कुछ भी कमी नहीं हुई है । इस कर्मविपाक की अपेक्षा प्राचीन कर्मविपाक बड़ा है सही, पर वह भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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