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कर्मवाद कर्मवाद का मानना यह है कि सुखः-दुःख, सम्पत्ति-विपत्ति, ऊँच-नीच आदि जो अनेक अवस्थाएँ दृष्टिगोचर होती हैं, उनके होने में काल, स्वभाव, पुरुषार्थ श्रादि अन्य-अन्य कारणों की तरह कर्म भी एक कारण है। परन्तु अन्य दर्शनों की तरह कर्मवाद-प्रधान जैन-दर्शन ईश्वर को उक्त अवस्थाओं का या सृष्टि की उत्पत्ति का कारण नहीं मानता । दूसरे दर्शनों में किसी समय सृष्टि का उत्पन्न होना माना गया है, अतएव उनमें सृष्टि की उत्पत्ति के साथ किसी न किसी तरह का ईश्वर का संबन्ध जोड़ दिया गया है। न्यायदर्शन में कहा है कि अच्छे-बुरे कर्म के फल ईश्वर की प्रेरणा से मिलते हैं----'तत्कारित्वादहेतुः' ।गौतमसूत्र अ० ४ श्रा० १ सू० २१ ।
वैशेषिक दर्शन में ईश्वर को सृष्टि का कर्ता मानकर, उसके स्वरूप का वर्णन किया है—-देखो, प्रशस्तपाद-भाष्य पृ०४८ }
योगदर्शन में ईश्वर के अधिष्ठान से प्रकृति का परिणाम-जड़ जगत का फैलाव माना है-देखो, समाधिपाद सू० २४ का भाष्य व टीका ।।
और श्री शङ्कराचार्य ने भी अपने ब्रह्मसूत्र के भाष्य में, उपनिषद् के आधार पर जगह-जगह ब्रह्म को सृष्टि का उपादान कारण सिद्ध किया है; जैसे-'चेतनमे कमद्वितीयं ब्रह्म क्षीरादिवद्देवादिवच्चानपेक्ष्य बाह्यसाधनं स्वयं परिणममानं जगतः कारणमिति स्थितम् ।'–ब्रह्म०२-१-२६ का भाष्य । 'तस्मादशेषवस्तुविषयमेवेदं सर्वविज्ञानं सर्वस्य ब्रह्मकार्यतापेक्षयोपन्यस्यत इति द्रष्टव्यम् ।'-ब्रह्म० अ० २ पा० ३ अ० १ सू० ६ का भाष्य । 'अतः श्रुतिप्रामाण्यादेकस्माद् ब्रह्मण' आकाशादिमहाभतोत्पत्तिक्रमेण जगज्जा तमिति निश्चीयते । --ब्रह्म० अ०२ पा० ३ अ० १ सू० ७ का भाष्य ।
परन्तु जीवों से फल भोगवाने के लिए जैन दर्शन ईश्वर को कर्म का प्रेरक नहीं मानता । क्योंकि कर्मवाद का मन्तव्य है कि जैसे जीव कर्म करने में स्वतन्त्र
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कर्मवाद. .
२१३ है वैसे ही उसके फल को भोगने में भी। कहा है कि-'यः कर्ता कर्मभेदानां, भोक्ता कर्मफलस्य च । संसा परिनिर्वाता स ह्यात्मा नान्यलक्षणः' ॥१॥ इसी प्रकार जैन दर्शन ईश्वर को सृष्टि का अधिष्ठाता भी नहीं मानता, क्योंकि उसके मत से सृष्टि अनादि अनन्त होने से वह कभी अपूर्व उत्पन्न नहीं हुई तथा वह स्वयं ही परिणमनशील है इसलिए ईश्वर के अधिष्ठान की प्रापेक्षा नहीं रखती। कर्मवाद पर होनेवाले मुख्य आक्षेप और उनका समाधान
ईश्वर को कर्ता या प्रेरक माननेवाले, कर्मवाद पर नीचे लिखे तीन आक्षेप करते हैं
[१ 1 घड़ी, मकान आदि छोटी-मोटी चीजें यदि किसी व्यक्ति के द्वारा ही निर्मित होती हैं तो फिर सम्पूर्ण जगत् , जो कार्यरूप दिखाई देता है, उसका मी उत्पादक कोई अवश्य होना चाहिए ।
[२] सभी प्राणी अच्छे या बुरे कर्म करते हैं, पर कोई बुरे कर्म का फल नहीं चाहता और कर्म स्वयं जड़ होने से. किसी चेतन की प्रेरणा के बिना फल देने में असमर्थ हैं। इसलिए कर्मवादियों को भी मानना चाहिए कि ईश्वर ही प्राणियों को कर्म-फल भोगवाता है ।
[३] ईश्वर एक ऐसा व्यक्ति होना चाहिए कि जो सदा से मुक्त हो, और मुक्त जीवों की अपेक्षा भी जिसमें कुछ विशेषता हो। इसलिए कर्मवाद का यह मानना ठीक नहीं कि कर्म से छुट जाने पर सभी जीव मुक्त अर्थात् ईश्वर हो जाते हैं। __पहिले आक्षेप का समाधान—यह जगत् किसी समय नया नहीं बना, वह सदा ही से है। हाँ इसमें परिवर्तन हुआ करते हैं। अनेक परिवर्तन ऐसे होते हैं कि जिनके होने में मनुष्य आदि प्राणीवर्ग के प्रयत्न की अपेक्षा देखी जाती है तथा ऐसे परिवर्तन भी होते हैं कि जिनमें किसी के प्रयत्न की अपेक्षा नहीं रहती। वे जड़ तत्वों के तरह-तरह के संयोगों से-उष्णता, वेग, क्रिया
आदि शक्तियों से बनते रहते हैं। उदाहरणार्थ मिट्टी, पत्थर आदि चीजों के इकट्ठा होने से छोटे-मोटे टीले या पहाड़ का बन जाना; इधर-उधर से पानी का प्रवाह मिल जाने से उनका नदी रूप में बहना; भाप का पानी रूप में बरसना
और फिर से पानी का भाप रूप बन जाना इत्यादि । इसलिए ईश्वर को सृष्टि का कर्ता मानने की कोई जरूरत नहीं है।
दूसरे आक्षेप का समाधान-प्राणी जैसा कर्म करते हैं वैसा फल उनको कर्म द्वारा ही मिल जाता है । कर्म जड़ हैं और प्राणी अपने किये बुरे कर्म का फल
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जैन धर्म और दर्शन नहीं चाहते यह ठीक है, पर यह ध्यान में रखना चाहिए कि जीव के-चेतन के संग से कर्म में ऐसी शक्ति पैदा हो जाती है कि जिससे वह अपने अच्छे-बुरे विपाकों को नियत समय पर जीव पर प्रकट करता है । कर्मवाद यह नहीं मानता कि चेतन के संबन्ध के सिवाय ही जड़ कर्म भोग देने में समर्थ है। वह इतना ही कहता है कि फल देने के लिए ईश्वर रूप चेतन की प्रेरणा मानने की कोई जरूरत नहीं। क्योंकि सभी जीव चेतन हैं वे जैसा कर्म करते हैं उसके अनुसार उनकी बुद्धि वैसी ही बन जाती है, जिससे बुरे कर्म के फल की इच्छा न रहने पर भी वे ऐसा कृत्य कर बैठते हैं कि जिससे उनको अपने कर्मानुसार फल मिल जाता है। कर्म करना एक बात है और फल को न चाहना दूसरी बात, केवल चाहना न होने ही से किए कर्म का फल मिलने से रुक नहीं सकता । सामग्री इकट्ठी हो गई फिर कार्य आप ही श्राप होने लगता है। उदाहरणार्थ-एक मनुष्य धूप में खड़ा है, गर्म चीज खाता है और चाहता है कि प्यास न लगे, सो क्या किसी तरह प्यास रुक सकती है ? ईश्वरकर्तृत्ववादी कहते हैं कि ईश्वर की इच्छा से प्रेरित होकर कर्म अपना-अपना फल प्राणियों पर प्रकट करते हैं। इस पर कर्मवादी कहते है कि कर्म करने के समय परिणामानुसार जीव में ऐसे संस्कार पड़ जाते हैं कि जिनसे प्रेरित होकर कर्ता जीव कर्म के फल को आप ही भोगते हैं और कर्म उन पर अपने फल को आप ही प्रकट करते हैं।
तीसरे आक्षेप का समाधान-ईश्वर चेतन है और जीव भी चेतन; फिर उनमें अन्तर ही क्या है ? हाँ अन्तर इतना हो सकता है कि जीव की सभी शक्तियाँ आवरणों से घिरी हुई हैं और ईश्वर की नहीं । पर जिस समय जीव अपने आवरणों को हटा देता है, उस समय तो उसकी सभी शक्तियाँ पूर्ण रूप में प्रकाशित हो जाती हैं। फिर जीव और ईश्वर में विषमता किस बात की ? विषमता का कारण जो औपाधिक कर्म है, उसके हट जाने पर भी यदि विषमता बनी रही तो फिर मुक्ति ही क्या है ? विषमता का राज्य संसार तक ही परिमित है आगे नहीं । इसलिए कर्मवाद के अनुसार यह मानने में कोई आपत्ति नहीं कि सभी मुक्त जीव ईश्वर ही हैं; केवल विश्वास के बल पर यह कहना कि ईश्वर एक ही होना चाहिए उचित नहीं । सभी आत्मा तात्विक दृष्टि से ईश्वर ही हैं, केवल बन्धन के कारण वे छोटे-मोटे जीव रूप में देखे जाते हैं - यह सिद्धान्त सभी को अपना ईश्वरत्व प्रकट करने के लिए पूर्ण बल देता है। व्यवहार और परमार्थ में कर्मवाद की उपयोगिता
इस लोक से या परलोक से संबन्ध रखनेवाले किसी काम में जब मनुष्य
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कर्मवाद
२१५. प्रवृत्ति करता है तब यह तो असम्भव ही है कि उसे किसी न किसी विघ्न का सामना करना न पड़े। सब कामों में सबको थोड़े बहुत प्रमाण में शारीरिक या मानसिक विघ्न आते ही हैं । ऐसी दशा में देखा जाता है कि बहुत लोग चंचल हो जाते हैं | घनड़ा कर दूसरों को दूषित ठहरा उन्हें कोसते हैं । इस तरह विपत्ति के समय एक तरफ बाहरी दुश्मन बढ़ जाते हैं और दूसरी तरफ बुद्धि अस्थिर होने से अपनी भूल दिखाई नहीं देती | अन्त को मनुष्य व्यग्रता के कारण अपने प्रारम्भ किये हुए सब कामों को छोड़ बैठता है और प्रयत्न तथा शक्ति के साथ न्याय का भी गला घोंटता है । इसलिए उस समय उस मनुष्य के लिए. एक ऐसे गुरु को आवश्यकता है कि जो उसके बुद्धि नेत्र को स्थिर कर उसे देखने में मदद पहुँचाए कि उपस्थित विघ्न का असली करण क्या है ? जहाँ तक बुद्धिमानों ने विचार किया है यही पता चला है कि ऐसा गुरु, कर्म का सिद्धान्त ही है । मनुष्य को यह विश्वास करना चाहिए कि चाहे मैं जान सक् या नहीं, लेकिन मेरे विघ्न का भीतरी व असली कारण मुझ में ही होना चाहिए ।
जिस हृदय-भूमिका पर विघ्न-विष-वृक्ष उगता है उसका बीज भी उसी भूमिका में बोया हुआ होना चाहिए। पवन, पानी आदि बाहरी निमित्तों के • समान उस विघ्न विध-वृक्ष को अंकुरित होने में कदाचित् अन्य कोई व्यक्ति
निमित्त हो सकता है, पर वह विघ्न का बीज नहीं—ऐसा विश्वास मनुष्य के बुद्धिनेत्र को स्थिर कर देता है जिससे वह अड़चन के असली कारण को अपने में देख, न तो उसके लिए दूसरे को कोसता है और न घबड़ाता है। ऐसे विश्वास से मनुष्य के हृदय में इतना बल प्रकट होता है कि जिससे साधारण संकट के समय विक्षित होनेवाला वह. बड़ी विपत्तियों को कुछ नहीं समझता और अपने व्यावहारिक या पारमार्थिक काम को पूरा ही कर डालता है।
मनुष्य को किसी भी काम की सफलता के लिए परिपूर्ण हार्दिक शान्ति प्रास करनी चाहिए, जो एक मात्र कर्म के सिद्धान्त ही से हो सकती है। आँधी और तूफान में जैसे हिमालय का शिखर स्थिर रहता है वैसे ही अनेक प्रतिकलताओं के समय शान्त भाव में स्थिर रहना. यही सच्चा मनुष्यत्व है जो कि भूतकाल के अनुभवों से शिक्षा देकर मनुष्य को अपनी भावी भलाई के लिए तैयार करता है। परन्तु यह निश्चित है कि ऐसा मनुष्यत्व, कर्म के सिद्धान्त पर विश्वास किये बिना कभी या नहीं सकता। इससे यही कहना पड़ता है कि क्या व्यवहारक्या परमार्थ सब जगह कर्म का सिद्धान्त एक-सा उपयोगी है। कर्म के सिद्धान्त की श्रेष्ठता के संबन्ध में डा० मेक्समूलर का जो विचार है वह जानने योग्य है। वे कहते हैं
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जैन धर्म और दर्शन ___ 'यह तो निश्चित है कि कर्ममत का असर मनुष्य जीवन पर बेहद हुआ है । यदि किसी मनुष्य को यह मालूम पड़े कि वर्तमान अपराध के सिवाय भी मुझको जो कुछ भोगना पड़ता है वह मेरे पूर्व जन्म के कर्म का ही फल है तो वह पुराने कर्ज को चुकाने वाले मनुष्य की तरह शान्त भाव से उस कष्ट को सहन कर लेगा और वह मनुष्य इतना भी जानता हो कि सहनशीलता से पुराना कर्ज चुकाया जा सकता है तथा उसी से भविष्यत् के लिए नीति की समृद्धि इकट्ठी की जा सकती है तो उसको भलाई के रास्ते पर चलने की प्रेरणा आप ही आप होगी। अच्छा या बुरा कोई भी कर्म नष्ट नहीं होता, यह नीतिशास्त्र का मत और पदार्थशास्त्र का बल-संरक्षण संबन्धी मत समान ही है। दोनों मतों का आशय इतना ही है कि किसी का नाश नहीं होता। किसी भी नीतिशिक्षा के आस्तित्व के संबन्ध में कितनी ही शङ्का क्यों न हो पर यह निर्विवाद सिद्ध है कि कर्ममत सब से अधिक जगह माना गया है, उससे लाखों मनुष्यों के कष्ट कम हुए हैं
और उसी मत से मनुष्यों को वर्तमान संकट झेलने की शक्ति पैदा करने तथा भविष्य जीवन को सुधारने में उत्तेजन मिला है।' कर्मवाद के समुत्थान का काल और उसका साध्य
कर्मवाद के विषय में दो प्रश्न उठते हैं-[१] कर्म-वाद का आविर्भाव कत्र हुश्रा ? [२] और क्यों ?
पहले प्रश्न का उत्तर दो दृष्टियों से दिया जा सकता है---(१) परंपरा और (२) ऐतिहासिक दृष्टि
(१) परम्परा के अनुसार यह कहा जाता है कि जैन धर्म और कर्मवाद का आपस में सूर्य और किरण का सा मेल है। किसी समय, किसी देश विशेष में जैन धर्म का अभाव भले ही दीख पड़े, लेकिन उसका अभाव सब जगह एक साथ कभी नहीं होता। अतएव सिद्ध है कि कर्मवाद भी प्रवाह-रूप से जैनधर्म के साथ-साथ अनादि है अर्थात् वह अभूतपूर्व नहीं है।
(२) परन्तु जैनेतर जिज्ञासु और इतिहास-प्रेमी जैन, उक्त परम्परा को बिना ननु-नच किये मानने के लिए तैयार नहीं । साथ ही वे लोग ऐतिहासिक प्रमाण के आधार पर दिये गए उत्तर को मान लेने में तनिक भी नहीं सकुचाते । यह बात निर्विवाद सिद्ध है कि इस समय जो जैनधर्म श्वेताम्बर या दिगम्बर शाखारूप से वर्तमान है, इस समय जितना जैन-तत्व-ज्ञान है और जो विशिष्ट परम्परा है वह सब भगवान महावीर के विचार का चित्र है । समय के प्रभाव से मूल वस्तु में कुछ न कुछ परिवर्तन होता रहता है, तथापि धारणाशील और रक्षण-शील
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कर्मवाद
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जैन समाज के लिए इतना निःसंकोच कहा जा सकता है कि उसने तत्त्व-ज्ञान के प्रदेश में भगवान् महावीर के उपदिष्ट तत्त्वों से न तो अधिक गवेषणा की है और न ऐसा सम्भव ही था । परिस्थिति के बदल जाने से चाहे शास्त्रीय भाषा और प्रतिपादन शैली, मूल प्रवर्तक की भाषा और शैली से कुछ बदल गई हो; परन्तु इतना सुनिश्चित है कि मूल तत्त्वों में और तत्त्व-व्यवस्था में कुछ भी अन्तर नहीं पड़ा है । अतएव जैन-शास्त्र के नयवाद, निक्षेपवाद, स्यादवाद, आदि अन्य वादों के समान कर्मवाद का आविर्भाव भी भगवान् महावीर से हुआ है – यह मानने में किसी प्रकार की आपत्ति नहीं की जा सकती । वर्तमान जैन श्रागम, किस समय 'और किसने रचे, यह प्रश्न एतिहासिकों की दृष्टि से भले ही विवादास्पद हो; लेकिन उनको भी इतना तो अवश्य मान्य है कि वर्तमान जैन आगम के सभी विशिष्ट और मुख्यवाद, भगवान् महावीर के विचार की विभूति है । कर्मवाद, यह जैनों -का असाधारण व मुख्यवाद है इसलिए उसके भगवान् महावीर से आविर्भूत होने के विषय में किसी प्रकार का सन्देह नहीं किया जा सकता । भगवान् महावीर - को निर्वाण प्राप्त हुए २४४८ वर्ष बीते । श्रतएव वर्तमान कर्मवाद के विषय में यह - कहना कि इसे उत्पन्न हुए ढाई हजार वर्ष हुए, सर्वथा प्रामाणिक है । भगवान् महावीर के शासन के साथ कर्मवाद का ऐसा संबन्ध है कि यदि वह उससे अलग - कर दिया जाए तो उस शासन में शासनत्व (विशेषत्व) ही नहीं रहता — इस बात को जैनधर्म का सूक्ष्म अवलोकन करनेवाले सभी ऐतिहासिक भलीभाँति जानते हैं ।
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इस जगह यह कहा जा सकता है कि 'भगवान् महावीर के समान, उनसे पूर्व, भगवान् पार्श्वनाथ, नेमिनाथ आदि हो गए हैं। वे भी जैनधर्म के स्वतन्त्र प्रवर्तक थे और सभी ऐतिहासिक उन्हें जैनधर्म के धुरंधर नायकरूप से स्वीकार भी करते हैं । फिर कर्मवाद के श्राविर्भाव के समय को उक्त समय-प्रमाण से चढ़ाने में क्या आपत्ति है ?' परन्तु इस पर कहना यह है कि कर्मवाद के उत्थान के समय के विषय में जो कुछ कहा जाए वह ऐसा हो कि जिसके मानने में किसी को किसी प्रकार की आनाकानी न हो। यह बात भूलना न चाहिए कि भगवान नेमिनाथ तथा पार्श्वनाथ आदि जैनधर्म के मुख्य प्रवर्तक हुए और उन्होंने जैन शासन को प्रवर्तित भी किया; परन्तु वर्तमान जैन श्रागम, जिन पर इस समय जैनशासन अवलम्बित है वे उनके उपदेश की सम्पत्ति नहीं । इसलिए कर्मवाद के समुत्थान का ऊपर जो समय दिया गया है उसे शङ्कनीय समझना चाहिए ।
दूसरा प्रश्न - यह है कि कमवाद का आविर्भाव किस प्रयोजन से हुआ इसके उत्तर में निम्नलिखित तीन प्रयोजन मुख्यतया बतलाए जा सकते हैं-
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जैन धर्म और दर्शन
(१) वैदिक धर्म की ईश्वर संबन्धिनी मान्यता में जितना अंश भ्रान्त था उसे दूर करना ।
(२) बौद्ध धर्म के एकान्त क्षणिकवाद को प्रयुक्त बतलाना ।
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(३) श्रात्मा को जड़ तत्त्वों से भिन्न स्वतन्त्र तत्त्व स्थापित करना ।
इसके विशेष खुलासे के लिए यह जानना चाहिए कि आर्यावर्त में भगवान् महावीर के समय कौन-कौन धर्म थे और उनका मन्तव्य क्या था ।
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१ - इतिहास बतलाता है कि उस समय भारतवर्ष में जैन के अतिरिक्त वैदिक और बौद्ध दो ही धर्म मुख्य थे; परन्तु दोनों के सिद्धान्त मुख्य-मुख्य विषयों. में बिलकुल जुदे थे । मूल' वेदों में, उपनिषदों में, स्मृतियों में और वेदानुयायी कतिपय दर्शनों में ईश्वर विषयक ऐसी कल्पना थी कि जिससे सर्व साधारण का यह विश्वास हो गया था कि जगत् का उत्पादक ईश्वर ही है; वही अच्छे या बुरे कर्मों का फल जीवों से भोगवाता है; कर्म, जड़ होने से ईश्वर की प्रेरणा के बिना अपना फल भोगवा नहीं सकते; चाहे कितनी ही उच्च कोटि का जीव हो, परन्तु वह अपना विकास करके ईश्वर हो नहीं सकता; अन्त को जीव, जीव ही है, ईश्वर नहीं और ईश्वर के अनुग्रह के सिवाय संसार से निस्तार भी नहीं हो सकता; इत्यादि ।
१ - सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथा पूर्वमकल्पयत् ।
दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्वः... ॥
--- ऋ० म० १० सू० १६ मं ३. । २ -- यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते । येन जातानि जीवन्ति । यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति तद्विजिज्ञासस्व । तद्ब्रह्मेति ।
३ - श्रासीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम् । अप्रतर्क्यमविज्ञेयं प्रसुप्तमिव सर्व्वतः ॥ १५ ॥ ततस्स्वयंभूर्भगवानव्यक्तो व्यञ्जयन्निदम् । महाभूतादिवृत्तौजाः प्रादुरासीत्तमोनुदः ॥ १-६ ॥ सोऽभिध्याय शरीरात्स्वात् सिसृक्षुर्विविधाः प्रजाः । प एव ससर्जादौ तासु वीजमवासृजत् ॥ १-८ ॥ तदण्डमभवद्वैमं सहस्त्रांशुसमप्रभम् । तस्मिञ्जज्ञे स्वयं ब्रह्मा सर्व्वलोकपितामहः ॥ १-६ ॥
- तैति० ३- १. ।
- मनुस्मृति ।
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कर्मवाद
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इस प्रकार के विश्वास में भगवान् महावीर को तीन भूलें जान पड़ी-- (१) कृतकृत्य ईश्वर का बिना प्रयोजन सृष्टि में हस्तक्षेप करना । (२) आत्म-स्वातंत्र्य का दब जाना। (३) कर्म की शक्ति का अज्ञान ।
इन भूलों को दूर करने के लिए व यथार्थ वस्तुस्थिति बताने के लिए भगवान् महावीर ने बड़ी शान्ति व गम्भीरतापूर्वक कर्मवाद का उपदेश दिया ।
२- यद्यपि उस समय बौद्ध धर्म भी प्रचलित था, परन्तु उसमें भी ईश्वर कर्तत्व का निषेध था। बुद्ध का उद्देश्य मुख्यतया हिंसा को रोक, समभाव फैलाने का था। उनकी तत्त्व-प्रतिपादन सरणी भी तत्कालीन उस उद्देश्य के अनुरूप ही थी। बुद्ध भगवान् स्वयं, 'कर्म और उसका २विपाक मानते थे, लेकिन उनके सिद्धान्तमें क्षणिकवाद को स्थान था। इसलिए भगवान महावीर के कर्मवाद के उपदेश कर एक यह भी गूढ़ साध्य था कि यदि आत्मा को क्षणिक मात्र नाम लिया जाए तो कर्म-विपाक की किसी तरह उपपत्ति हो नहीं सकती। स्वकृत कर्म का भोग और परकृत्त कर्म के भोग का अभाव तभी घट सकता है, जब कि आत्मा को न तो एकान्त नित्य माना जाए और न एकान्त क्षणिक ।
३–अाजकल को तरह उस समय भी भूतात्मवादी मौजूद थे। वे भौतिक देह नष्ट होने के बाद कृतकर्म-भोगी पुनर्जन्मवान् किसी स्थायी तत्त्व को नहीं मानते थे यह दृष्टि भगवान महावीर को बहुत संकुचित जान पड़ी। इसी से उसका निराकरण उन्होंने कर्मवाद द्वारा किया ।
कर्मशास्त्र का परिचय यद्यपि वैदिक साहित्य तथा बौद्ध साहित्य में कर्म संबन्धी विचार है, पर वह इतना अल्प है कि उसका कोई खास ग्रन्थ उस साहित्य में दृष्टि-गोचर नहीं होता। इसके विपरीत जैनदर्शन में कर्म-संबन्धी विचार सूक्ष्म, व्यवस्थित और अतिविस्तृत हैं । अतएव उन विचारों का प्रतिपादक शास्त्र, जिसे 'कर्मशास्त्र' या 'कर्म-विषयक साहित्य' कहते हैं, उसने जैन-साहित्य के बहुत बड़े भाग को रोक
१. कम्मना वत्तती लोको कम्मना क्त्तती पजा। कम्मनिबंधना सत्ता रथस्साणीव यायतो ।।
सुत्तनिपात, वासेठसुत्त, ६१ । २. यं कम्मं करिस्सामि कल्याणं वा पापकं वा तस्स दायादा भविस्सामि।
-~-अंगुत्तरनिकाय ।
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जैन धर्म और दर्शन रखा है। कर्म-शास्त्र को जैन साहित्य का हृदय कहना चाहिए । यों तो अन्य विषयक जैन-ग्रन्थों में भी कर्म की थोड़ी बहुत चर्चा पाई जाती है पर उसके स्वतंत्र ग्रन्थ भी अनेक हैं। भगवान् महावीर ने कर्मवाद का उपदेश दिया। उसकी परम्परा अभी तक चली आती है, लेकिन सम्प्रदाय-भेद, सङ्कलना और भाषा की दृष्टि से उसमें कुछ परिवर्तन अवश्य हो गया है।
१. सम्प्रदाय भेद-भगवान् महावीर का शासन श्वेताम्बर और दिगम्बर इन दो शाखाओं में विभक्त हुअा। उस समय कर्मशास्त्र भी विभाजित सा हो गया । सम्प्रदाय भेद की नींव, ऐसे वज्र-लेप भेद पर पड़ी है कि जिससे अपने पितामह भगवान् महावीर के उपदिष्ट कर्म-तत्त्व घर, मिलकर विचार करने का पुण्य अवसर, दोनों सम्प्रदाय के विद्वानों को कभी प्राप्त नहीं हुआ। इसका फल यह हुआ कि मूल विषय में कुछ मतभेद न होने पर भी कुछ पारिभाषिक शब्दों में, उनकी व्याख्याओं में और कहीं-कहीं तात्पर्य में थोड़ा बहुत भेद हो गया, जिसका कुछ नमूना पाठक परिशिष्ट में देख सकेंगे-देखो, प्रथम कर्मग्रन्थ का परिशिष्ट ।
२. संकलना-भगवान् महावीर के समय से अब तक में कर्मशास्त्र की जो उत्तरोत्तर संकलना होती आई है, उसके स्थूल दृष्टि से तीन विभाग बतलाये जा सकते हैं।
(क) पूर्वात्मक कर्मशास्त्र- यह भाग सबसे बड़ा और सबसे पहला है। क्योंकि इसका अस्तित्व तब तक माना जाता है, जब तक कि पूर्व-विद्या विच्छिन्न नहीं हुई थी। भगवान् महावीर के बाद करीब ६०० या १००० वर्ष तक क्रमिक-हास-रूप से पूर्व विद्या वर्तमान रही। चौदह में से श्राठवाँ पूर्व, जिसका नाम 'कर्मप्रवाद है वह तो मुख्यतया कर्म-विषयक ही था, परन्तु इसके अतिरिक्त दूसरा पूर्व, जिसका नाम 'अग्रायणीय' है, उसमें भी कर्म तत्त्व के विचार का एक 'कर्मप्राभृत' नामक भाग था। इस समय श्वेताम्बर या दिगम्बर के साहित्य में पूर्वात्मक कर्मशास्त्र का मूल अंश वर्तमान नहीं है ।
(ख) पूर्व से उद्धृत यानी श्राकररूप कर्मशास्त्र--यह विभाग, पहले विभाग से बहुत छोटा है तथापि वर्तमान अभ्यासियों के लिए वह इतना बड़ा है कि उसे आकर कर्मशास्त्र कहना पड़ता है। यह भाग, साक्षात् पूर्व से उद्धृत है ऐसा उल्लेख श्वेताम्बर, दिगम्बर दोनों के ग्रन्थों में पाया जाता है। पूर्व में से उद्धृत किये गए कर्मशास्त्र का अंश, दोनों सम्प्रदाय में अभी वर्तमान है। उद्धार के समय संप्रदाय भेद रूढ़ हो जाने के कारण उद्धृत अंश, दोनों सम्प्रदायों में कुछ भिन्न-भिन्न नाम से प्रसिद्ध हैं। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में १ कर्मप्रकृति, २ शतक,
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कर्मशास्त्र
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३ पञ्चसंग्रह और ४ सप्ततिका ये चार ग्रंथ और दिगम्बर सम्प्रदाय में १ महाकर्मप्रकृतिप्राभृत तथा २ कषायप्राभृत ये दो ग्रन्थ पूर्वोद्धृत माने जाते हैं ।
( ग ) प्राकरणिक कर्मशास्त्र - यह विभाग, तीसरी संकलना का फल है इसमें कर्म-विषयक छोटे-बड़े अनेक प्रकरण ग्रन्थ सम्मिलित हैं । इन्हीं प्रकरण ग्रन्थों का अध्ययन-अध्यापन इस समय विशेषतया प्रचलित है । इन प्रकरणों को पढ़ने के बाद मेधावी अभ्यासी आकर ग्रन्थों' को पढ़ते हैं । 'आकर ग्रन्थों' में प्रवेश करने के लिए पहले प्राकरणिक विभाग का अवलोकन करना जरूरी है । यह प्राकरणिक कर्मशास्त्र का विभाग, विक्रम की आठवीं-नववीं शताब्दी से लेकर सोलहवीं सत्रहवीं शताब्दी तक में निर्मित व पल्लवित हुआ है ।
३. भाषा - भाषा -दृष्टि से कर्मशास्त्र को तीन हिस्सों में विभाजित कर सकते हैं -- ( क ) प्राकृत भाषा में, ( ख ) संस्कृत भाषा में और ( ग ) प्रचलित प्रादेशिक भाषाओं में
( क ) प्राकृत - पूर्वात्मक और पूर्वोद्धृत कर्मशास्त्र, इसी भाषा में बने हैं । प्राकरणिक कर्मशास्त्र का भी बहुत बड़ा भाग प्राकृत भाषा ही में रचा हुआ मिलता है । मूल ग्रन्थों के अतिरिक्त उनके ऊपर टीका-टिप्पणी भी प्राकृत भाषाओं में हैं ।
( ख ) संस्कृत -- पुराने समय में जो कर्मशास्त्र बना है वह सब प्राकृत ही में हैं, किन्तु पीछे से संस्कृत भाषा में भी कर्मशास्त्र की रचना होने लगी । बहुत कर संस्कृत भाषा में कर्मशास्त्र पर टीका-टिप्पण आदि ही लिखे गए हैं, पर कुछ मूल प्राकरणिक कर्मशास्त्र दोनों सम्प्रदाय में ऐसे भी हैं जो संस्कृत भाषा में रचे हुए हैं।
( ग ) प्रचलित प्रादेशिक भाषाएँ - इनमें मुख्यतया कर्णाटकी, गुजराती और राजस्थानी हिन्दी, तीन भाषाओं का समावेश है । इन भाषाओं में मौलिक ग्रन्थ नाम मात्र के हैं । इनका उपयोग, मुख्यतया मूल तथा टीका के अनुवाद करने ही में किया गया है। विशेषकर इन प्रादेशिक भाषाओं में वही टीका-टिप्पणअनुवाद आदि हैं जो प्राकरणिक कर्मशास्त्र विभाग पर लिखे हुए हैं । कर्णाटकी और हिन्दी भाषा का श्राश्रय दिगम्बर साहित्य ने लिया है और गुजराती भाषा श्वेताम्बरीय साहित्य में उपयुक्त हुई है ।
आगे चलकर 'श्वेताम्बरीय कर्म विषयक ग्रंथ' और 'दिगम्बरीय कर्मविषयक ग्रन्थ' शीर्षक दो कोष्ठक दिये जाते हैं, जिनमें उन कर्मविषयक ग्रन्थों का संक्षिप्त विवरण है जो श्वेताम्बरीय तथा दिगम्बरीय साहित्य में अभी वर्तमान हैं या जिनका पता चला है— देखो, कोष्ठक के लिए प्रथम कर्मग्रन्थ |
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जैन धर्म और दर्शन कर्मशास्त्र में शरीर, भाषा, इन्द्रिय आदि पर विचार
शरीर, जिन तत्त्वों से बनता है वे तत्त्व, शरीर के सूक्ष्म स्थूल आदि प्रकार, उसकी रचना, उसका वृद्धि-क्रम, हास-क्रम आदि अनेक अंशों को लेकर शरीर का विचार, शरीर-शास्त्र में किया जाता है। इसी से उस शास्त्र का वास्तविक गौरव है। वह गौरव कर्मशास्त्र को भी प्राप्त है। क्योंकि उसमें भी प्रसंगवश ऐसी अनेक बातों का वर्णन किया गया है जो कि शरीर से संबन्ध रखती हैं। शरीर-संबन्धी ये बातें पुरातन पद्धति से कही हुई हैं सही, परन्तु इससे उनका महत्त्व कम नहीं। क्योंकि सभी वर्णन सदा नए नहीं रहते । आज जो विषय नया दिखाई देता है वही थोड़े दिनों के बाद पुराना हो जाएगा। वस्तुतः काल के बीतने से किसी में पुरानापन नहीं आता । पुरानापन आता है उसका विचार न करने से ; सामयिक पद्धति से विचार करने पर पुरातन शोधों में भी नवीनता सी श्रा जाती है। इसलिए अतिपुरातन कर्मशास्त्र में भी शरीर की बनावट, उसके प्रकार, उसकी मजबूती और उसके कारणभूत तत्वों पर जो कुछ थोड़े बहुत विचार पाए जाते है, वह उस शास्त्र की यथार्थ महत्ता का चिह्न है।
इसी प्रकार कर्मशास्त्र में भाषा के संबन्ध में तथा इन्द्रियों के संबन्ध में भी मनोरंजक व विचारणीय चर्चा मिलती है । भाषा किस तत्व से बनती है ? उसके बनने में कितना समय लगता है ? उसकी रचना के लिए अपनी वीर्यशक्ति का प्रयोग यात्मा किस तरह और किस साधन के द्वारा करता है ? भाषा की सत्यता-असत्यता का आधार क्या है ? कौन-कौन प्राणी भाषा बोल सकते हैं ? किस-किस जाति के प्राणी में, किस-किस प्रकार की भाषा बोलने की शक्ति है ? इत्यादि अनेक प्रश्न, भाषा से संबन्ध रखते हैं। उनका महत्वपूर्ण व गम्भीर विचार, कर्म शास्त्र में विशद रीति से किया हुआ मिलता है।
इसी प्रकार इन्द्रियां कितनी हैं ? कैसी हैं ? उनके कैसे-कैसे भेद तथा कैसीकैसी शक्तियाँ हैं ? किस-किस प्राणी को कितनी-कितनी इन्द्रियाँ प्राप्त हैं ? बाह्य और श्राभ्यन्तरिक इन्द्रियों का आपस में क्या संबन्ध है ? उनका कैसा कैसा आकार है ? इत्यादि अनेक प्रकार के इन्द्रियों से संबन्ध रखनेवाले विचार कर्मशास्त्र में पाये जाते हैं।
यह ठीक है कि ये सब विचार उसमें संकलना-बद्ध नहीं मिलते. परन्तु ध्यान में रहे कि उस शास्त्र का मुख्य प्रतिपाद्य अंश और ही है। उसी के वर्णन में शरीर, भाषा, इन्द्रिय अादि का विचार प्रसंगवश करना पड़ता है । इसलिए जैसी संकलना चाहिए वैसी न भी हो, तथापि इससे कर्मशास्त्र की कुछ त्रुटि सिद्ध नहीं
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कर्मशास्त्र
२२३ होती; बल्कि उसको तो अनेक शास्त्रों के विषयों की चर्चा करने का गौरव ही प्राप्त है। कर्मशास्त्र अध्यात्मशास्त्र है
अध्यात्म-शास्त्र का उद्देश्य, आत्मा-सम्बन्धी विषयों पर विचार करना है। अतएव उसको आत्मा के पारमार्थिक स्वरूप का निरूपण करने के पहले उसके व्यावहारिक स्वरूप का भी कथन करना पड़ता है। ऐसा न करने से यह प्रश्न सहज ही में उठता है कि मनुष्य, पशु-पक्षी, सुखी-दुःखी आदि अात्मा की दृश्यमान अवस्थाओं का स्वरूप, ठीक-ठीक जाने बिना उसके पार का स्वरूप जानने की योग्यता, दृष्टि को कैसे प्राप्त हो सकती है ? इसके सिवाय यह भी प्रश्न होता है कि दृश्यमान वर्तमान अवस्थाएँ ही आत्मा का स्वभाव क्यों नहीं है ? इसलिए अध्यात्म-शास्त्र को आवश्यक है कि वह पहले, आत्मा के दृश्यमान स्वरूप की उपपत्ति दिखाकर आगे बढ़े। यही काम कर्मशास्त्र ने किया है। वह दृश्यमान सब अवस्थात्रों को कर्म-जन्य बतला कर उनसे आत्मा के स्वभाव की जुदाई की सूचना करता है। इस दृष्टि से कर्मशात्र, अध्यात्म-शास्त्र का ही एक अंश है। यदि अध्यात्म-शास्त्र का उद्देश्य, आत्मा के शुद्ध स्वरूप का वर्णन करना ही माना जाए तब भी कर्मशास्त्र को उसका प्रथम सोपान मानना ही पड़ता है। इसका कारण यह है कि जब तक अनुभव में आनेवाली वर्तमान अवस्थाओं के साथ श्रात्मा के संबन्ध का सच्चा खुलासा न हो तब तक दृष्टि, आगे कैसे बढ़ सकती है ! जब यह ज्ञात हो जाता है कि ऊपर के सब रूप, मायिक या वैभाविक हैं तब स्वयमेव जिज्ञाता होती है कि आत्मा का सच्चा स्वरूप क्या है ? उसी समय आत्मा के केवल शुद्ध स्वरूप का प्रतिपादन सार्थक होता है। परमात्मा के साथ आत्मा का संबन्ध दिखाना यह भी अध्यात्मशास्त्र का विषय है। इस संबन्ध में उपनिषदों में या गीता में जैसे विचार पाये जाते हैं वैसे ही कर्मशास्त्र में भी। कर्मशास्त्र कहता है कि आत्मा वही परमात्मा–जीव ही ईश्वर है । आत्मा का परमात्मा में मिल जाना, इसका मतलब यह है कि आत्मा का अपने कर्मावृत परमात्मभाव को व्यक्त करके परमात्मरूप हो जाना। जीव परमात्मा का अंश है इसका मतलब कर्मशास्त्र की दृष्टि से यह है कि जीव में जितनी ज्ञान-कला व्यक्त है, वह परिपूर्ण. परन्तु अन्यक्त ( श्रावृत ) चेतना-चन्द्रिका का एक अंश मात्र है। कर्म का आवरण हट जाने से चेतना परिपूर्ण रूप में प्रकट होती है। उसी को ईश्वरभाव या ईश्वरत्व की प्राप्ति समझना चाहिए।
धन, शरीर आदि बाह्य विभूतियों में आत्म-बुद्धि करना, अर्थात् जड़ में
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जैन धर्म और दर्शन अहत्व करना, बाह्य दृष्टि है। इस अभेद-भ्रम को बहिरात्मभाव सिद्ध करके उसे छोड़ने की शिक्षा, कर्मशास्त्र देता है । जिनके संस्कार केवल बहिरात्मभावमय हो गए हैं उन्हें कर्म-शास्त्र का उपदेश भले ही रुचिकर न हो, परन्तु इससे उसकी सच्चाई में कुछ भी अन्तर नहीं पड़ सकता । ___ शरीर और आत्मा के अभेद भ्रम को दूर करा कर, उस के भेद-ज्ञान को (विवेक-ख्याति को कर्म-शास्त्र प्रकटाता है। इसी समय से अन्तर्दृष्टि खुलती है। अन्तदृष्टि के द्वारा अपने में वर्तमान परमात्म-भाव देखा जाता है । परमात्मा भाव को देखकर उसे पूर्णतया अनुभव में लाना, यह जीव का शिव (ब्रह्म ) होना है। इसी ब्रह्म-भाव को व्यक्त कराने का काम कुछ और ढंग से ही कर्मशास्त्र ने अपने पर ले रखा है। क्योंकि वह अभेद-भ्रम से भेद ज्ञान की तरफ झुकाकर, फिर स्वाभाविक अभेदध्यान की उच्च भूमिका की ओर आत्मा को खींचता है । बस उसका कर्तव्य-क्षेत्र उतना ही है । साथ ही योग-शास्त्र के मुख्य प्रतिपाद्य अंश का वर्णन भी उसमें मिल जाता है। इसलिए यह स्पष्ट है कि कर्मशास्त्र, अनेक प्रकार के आध्यात्मिक शास्त्रीय विचारों की खान है । वही उसका महत्त्व है | बहुत लोगों को प्रकृत्तियों की गिनती, संख्या की बहुलता अादि से उस पर रुचि नहीं होती, परन्तु इसमें कर्मशास्त्र का क्या दोष ? गणित, -पदार्थविज्ञान आदि गूढ़ व रस-पूर्ण विषयों पर स्थूलदी लोगों की दृष्टि नहीं जमती और उन्हें रस नहीं आता, इसमें उन विषयों का क्या दोष ? दोष है समझने वालों की बुद्धि का। किसी भी विषय के अभ्यासी को उस विषय में रस तभी आता है जब कि वह उसमें तल तक उतर जाए। .
विषय-प्रवेश कर्म-शास्त्र जानने की चाह रखनेवालों को आवश्यक है कि वे 'कर्म' शब्द का अर्थ, भिन्न-भिन्न शास्त्रों में प्रयोग किये गए उसके पर्याय शब्द, कर्म का स्वरूप, आदि निम्न विषयों से परिचित हो जाएँ तथा प्रात्म-तत्त्व स्वतन्त्र है यह भी जान लें। १--कम शब्द के अर्थ _ 'कर्म' शब्द लोक व्यवहार और शास्त्र दोनों में प्रसिद्ध है। उसके अनेक अर्थ होते हैं । साधारण लोग अपने व्यवहार में काम, धंधे या व्यवसाय के मतलब से 'कर्म' शब्द का प्रयोग करते हैं। शास्त्र में उसकी एक गति नहीं है। खाना, पीना, चलना, काँपना आदि किसी भी हल-चल के लिए चाहे वह जीव की हो या जड़ की-कर्म शब्द का प्रयोग किया जाता है।
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कर्मवाद
२२५.
कर्मकाण्डी मीमांसक, यज्ञ याग आदि क्रिया-कलाप अर्थ में स्मार्त विद्वान्, ब्राह्मण आदि चार वर्णों और ब्रह्मचर्य्यं श्रादि चार श्राश्रमों के नियत कर्मरूप अर्थ में; पौराणिक लोग व्रत नियम श्रादि धार्मिक क्रियाओं के अर्थ में; वैयाकरण लोग, कर्त्ता जिसको अपनी क्रिया के द्वारा पाना चाहता है उस अर्थ में अर्थात् जिस पर कर्ता के व्यापार का फल गिरता है उस अर्थ में; और नैयायिक लोग उत्क्षेपण आदि पाँच सांकेतिक कर्मों में कर्म शब्द का व्यवहार करते हैं । परन्तु जैन शास्त्र में कर्म शब्द से दो अर्थ लिये जाते हैं । पहला राग-द्वेषात्मक परिणाम, जिसे कषाय । भाव कर्म ) कहते हैं और दूसरा कार्मण जाति के पुद्गल विशेष, जो कषाय के निमित्त से आत्मा के साथ चिपके हुए होते हैं और द्रव्य कर्म कहलाते हैं I
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२ - कर्म शब्द के कुछ पर्याय
जैन दर्शन में जिस अर्थ के लिए कर्म शब्द प्रयुक्त होता है उस अर्थ के अथवा उससे कुछ मिलते-जुलते अर्थ के लिए जैनेतर दर्शनों में ये शब्द मिलते हैं - माया, अविद्या, प्रकृति, पूर्व, वासना, आशय, धर्माधर्म, अदृष्ट, संस्कार, दैव, भाग्य आदि ।
माया, विद्या, प्रकृति ये तीन शब्द वेदान्त दर्शन में पाए जाते हैं । इनका मूलरी -करी वही है, जिसे जैन दर्शन में भाव - कर्म कहते हैं । 'अपूर्व' शब्द मीमांसा दर्शन में मिलता है । 'वासना' शब्द बौद्ध दर्शन में प्रसिद्ध है, परन्तु योग दर्शन में भी उसका प्रयोग किया गया है । 'आशय' शब्द विशेष कर योग तथा सांख्य दर्शन में मिलता है । धर्माधर्म, अदृष्ट और संस्कार, इन शब्दों का प्रयोग और दर्शनों में भी पाया जाता है, परन्तु विशेषकर न्याय तथा वैशेषिक दर्शन में । दैव, भाग्य, पुण्य-पाप आदि कई ऐसे शब्द हैं जो सब दर्शनों के लिए साधारण से हैं। जितने दर्शन आत्मवादी हैं और पुनर्जन्म मानते हैं उनको पुनर्जन्म की सिद्धि-उपपत्ति के लिए कर्म मानना ही पड़ता है। चाहे उन दर्शनों की भिन्न-भिन्न प्रक्रियाओं के कारण या चेतन के स्वरूप में मतभेद होने के कारण कर्म का स्वरूप थोड़ा बहुत जुदा-जुदा जान पड़े; परन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि सभी आत्मवादियों ने माया आदि उपर्युक्त किसी न किसी नाम से कर्म को अंगीकार किया ही है ।
३ - कर्म का स्वरूप
मिथ्यात्व, कषाय आदि कारणों से जीव के द्वारा जो किया जाता है वही 'कर्म' कहलाता है । कर्म का यह लक्षण उपर्युक्त भावकर्म व द्रव्यकर्म दोनों में
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जैन धर्म और दर्शन घटित होता है, क्योंकि भावकम् आत्मा का या जीव का-वैभाविक परिणाम है, इससे उसका उपादान रूप कर्त्ता, जीव हो है और द्रव्यकर्म, जो कि कार्मण-जाति के सूक्ष्म पुद्गलों का विकार है उसका भी कर्ता, निमित्तरूप से जीव ही है । भावकर्म के होने में द्रव्यकर्म निमिच है और द्रव्यकर्म में भावकर्म निमित्त । इस प्रकार उन दोनों का आपस में बीजाकुर की तरह कार्य-कारण भाव संबन्ध है । ४---पुण्य-पाप की कसौटी . ___ साधारण लोग कहा करते हैं कि 'दान, पूजन, सेवा आदि क्रियाओं के करने से शुभ कर्म का (पुण्य का) इन्ध होता है और किसी को कष्ट पहुँचाने, इच्छा-विरुद्ध काम करने आदि से अशुभ कर्म का (पाप का ) बन्ध होता है । परन्तु पुण्य-पाप का निर्णय करने की मुख्य कसौटी यह नहीं है । क्योंकि किसी को कष्ट पहुँचाता हुआ और दूसरे की इच्छा-विरुद्ध काम करता हुआ भी मनुष्य, पुण्य उपार्जन कर सकता है । इसी तरह दान-पूजन आदि करने वाला भी पुण्य-उपार्जन न कर, कभी-कभी पाप बांध लेता है । एक परोपकारी चिकित्सक, जब किसी पर शस्त्रक्रिया करता है तब उस मरीज को कष्ट अवश्य होता है, हितैषी माता-पिता नासमझ लड़के को जब उसकी इच्छा के विरुद्ध पढ़ाने के लिए यत्न करते हैं तब उस बालक को दुःख सा मालूम पड़ता है; पर इतने ही से न तो वह चिकित्सक अनुचित काम करने वाला माना जाता है और न हितैषी माता-पिता ही दोषी समझे जाते हैं। इसके विपरीत जब कोई, भोले लोगों को ठगने के इरादे से या और किसी तुच्छ आशय से दान पूजन आदि क्रियाओं को करता है तब वह पुण्य के बदले पाप बाँधता है। अतएव पुण्यबन्ध या पाप-बन्ध की सच्ची कसौटी केवल ऊपर की क्रिया नहीं है, किन्तु उसकी यथार्थ कसौटी कर्ता का श्राशय ही है। अच्छे आशय से जो काम किया जाता है वह पुण्य का निमित्त और बुरे अभिप्राय से जो काम किया जाता है वह पाप का निमित्त होता है। यह पुण्य-पाप की कसौटी सब को एक सी सम्मत है। क्योंकि यह सिद्धान्त सर्व-मान्य है कि
_ 'यादृशी भावना यस्य, सिद्धिर्भवति तादृशी।' ५-सच्ची निर्लेपता
साधारण लोग यह समझ बैठते हैं कि अमुक काम न करने से अपने को पुण्य-पाप का लेप न लगेगा । इससे वे उस काम को तो छोड़ देते हैं, पर बहुधा उनकी मानसिक क्रिया नहीं छूटती । इससे वे इच्छा रहने पर भी पुण्य-पाप के
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कर्मवाद
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लेप से अपने को मुक्त नहीं कर सकते । अतएव विचारना चाहिए कि सच्ची निर्लेपता क्या है ? लेप ( बन्ध ), मानसिक क्षोभ को अर्थात् कषाय को कहते हैं । यदि कषाय नहीं है तो ऊपर की कोई भी क्रिया आत्मा को बन्धन में रखने के लिए समर्थ नहीं है । इससे उलटा यदि कषाय का वेग भीतर वर्तमान है तो ऊपर से हज़ार यत्न करने पर भी कोई अपने को बन्धन से छुड़ा नहीं सकता । कषाय-रहित वीतराग सब जगह जल में कमल की तरह निर्लेप रहते हैं पर कषायवान् आत्मा योग का स्वाँग रचकर भी तिल भर शुद्धि नहीं कर सकता । इससे यह कहा जाता है कि श्रासक्ति छोड़कर जो काम किया जाता है वह बन्धक नहीं होता । मतलब सच्ची निर्लेपता मानसिक क्षोभ के त्याग में है । यही शिक्षा कर्म-शास्त्र से मिलती है और यही बात अन्यत्र भी कही हुई है :'मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः | बन्धाय विषया. ऽसंगि मोक्षे निर्विषयं स्मृतम् ॥'
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- मैत्र्युपनिषद्
६ - कर्म का अनादित्व
विचारवान् मनुष्य के दिल में प्रश्न होता है कि कर्म सादि है या अनादि ? 'इसके उत्तर में जैन दर्शन का कहना है कि कर्म, व्यक्ति की अपेक्षा से सादि और प्रवाह की अपेक्षा से अनादि है । यह सबका अनुभव है कि प्राणी सोतेजागते, उठते-बैठते, चलते-फिरते किसी न किसी तरह की हलचल किया ही करता है । हलचल का होना ही कर्म-बन्ध की जड़ है। इससे यह सिद्ध हैं कि कर्म, व्यक्तिशः श्रादि वाले ही हैं । किन्तु कर्म का प्रवाह कब से चला ? इसे कोई बतला नहीं सकता । भविष्यत् के समान भूतकाल की गहराई अनन्त है | अनन्त का वर्णन नादिया अनन्त शब्द के सिवाय और किसी तरह से होना सम्भव है । इसलिए कर्म के प्रवाह को अनादि कहे बिना दूसरी गति ही नहीं है । कुछ लोग अनादित्व की स्पष्ट व्याख्या की उलझन से घबड़ा कर कर्म प्रवाह को सादि बतलाने लग जाते हैं, पर वे अपनी बुद्धि की अस्थिरता से कल्पित दोष की आशंका करके, उसे दूर करने के प्रयत्न में एक बड़े दोष का स्वीकार कर लेते हैं। वह यह कि कर्म प्रवाह यदि आदिमान है तो जीव पहले ही अत्यन्त शुद्धबुद्ध होना चाहिए, फिर उसे लिप्स होने का क्या कारण ? और यदि सर्वथा शुद्धबुद्ध जीव भी लिस हो जाता है तो मुक्त हुए जीव भी कर्म-लित होंगे; ऐसी दशा में मुक्ति को सोया हुआ संसार ही कहना चाहिए | कर्म प्रवाह के अनादित्व को और मुक्त जीव के फिर से संसार में न लौटने को सच प्रतिष्ठित दर्शन मानते हैं; जैसे
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जैन धर्म और दर्शन न कर्माऽविभागादिति चेन्नाऽनादित्वात् ॥ ३५ ॥ उपपद्यते चान्युपलभ्यते च ।। ३६ ॥
-ब्रह्मसूत्र अ० २ पा० १ अनावृत्तिः शब्दादनावृत्तिः शब्दात् ।। २२॥
—त्र. सू. अ. ४ पा०४ . ७-कर्मबन्ध का कारण
जैन दर्शन में कर्मवन्ध के मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये चार कारण बतलाये गए हैं। इनका संक्षेप पिछले दो ( कषाय और योग ) कारणों में किया हुश्रा भी मिलता है । अधिक संक्षेप करके कहा जाय तो यह कह सकते हैं कि कषाय ही कर्मचन्ध का कारण है। यों तो कषाय के विकार के अनेक प्रकार हैं पर, उन सबका संक्षेप में वर्गीकरण करके श्राध्यात्मिक विद्वानों ने उस के राग, द्वेष दो ही प्रकार किये हैं। कोई भी मानसिक विकार हो, या तो वह राग ( आसक्ति) रूप या द्वेष (ताप ) रूप है। यह भी अनुभव सिद्ध है कि साधारण प्राणियों की प्रवृत्ति, चाहे वह ऊपर से कैसी ही क्यों न दीख पड़े, पर वह या तो रागमूलक या द्वेषमूलक होती है । ऐसी प्रवृत्ति ही विविध वासनाओं का कारण होती है । प्राणी जान सके या नहीं, पर उसकी वासनात्मक सूक्ष्म सृष्टि का कारण, उसके राग और द्वेष ही होते हैं। मकड़ी, अपनी ही प्रवृत्ति से अपने किये हुए जाल में फँसती है ! जीव भी कर्म के जाले को अपनी ही बे-समझी से रच लेता है । अज्ञान, मिथ्या-ज्ञान आदि जो कर्म के कारण कहे जाते हैं सो भी राग-द्वेष के संबन्ध ही से। राग की या द्वेष की मात्रा बढ़ी कि ज्ञान, विपरीत रूप में बदलने लगा। इससे शब्द भेद होने पर भी कर्मबन्ध के कारण के संबन्ध में अन्य आस्तिक दर्शनों के साथ, जैन दर्शन का कोई मतभेद नहीं। नैयायिक तथा वैशेषिक दर्शन में मिथ्याज्ञान को, योगदर्शन में प्रकृतिपुरुष के अभेद ज्ञान को और वेदान्त आदि में अविद्या को तथा जैनदर्शन में मिथ्यात्व को कर्म का कारण बतलाया है, परन्तु यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि किसी को भी कर्म का कारण क्यों न कहा जाय, पर यदि उसमें कर्म की अन्धकता ( कर्म लेप पैदा करने की शक्ति ) है तो वह राग-द्वेष के संबन्ध ही से । राग-द्वेष की न्यूनता या अभाव होते ही अज्ञानपन ( मिथ्यात्व ) कम होता या नष्ट हो जाता है। महाभारत शान्तिपर्व के 'कर्मणा बध्यते जन्तुः' इस कथन में भी कर्म शब्द का मतलब राग-द्वेष ही से है ।
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.. कर्मवाद
૨૨E ८-कर्म से छूटने के उपाय
अब यह विचार करना जरूरी है कि कर्मपटल से आवृत अपने परमात्मभाव को जो प्रगट करना चाहते हैं उनके लिए किन-किन साधनों की अपेक्षा है।
जैन शास्त्र में परम पुरुषार्थ---मोक्ष—पाने के तीन साधन बतलाये हुए हैं-(१) सम्यग्दर्शन, (२) सम्यग्ज्ञान और (३) सम्यगचारित्र । कहींकहीं ज्ञान और क्रिया, दो को ही मोक्ष का साधन कहा है। ऐसे स्थल में दर्शन को शानस्वरूप---ज्ञान का विशेष-समझ कर उस से जुदा नहीं गिनते। परन्तु यह प्रश्न होता है कि वैदिक दर्शनों में कर्म, ज्ञान, योग और भक्ति इन चारों को मोक्ष का साधन माना है फिर जैनदर्शन में तीन या दो ही साधन क्यों कहे गए ? इसका समाधान इस प्रकार है कि जैनदर्शन में जिस सम्यक्चारित्र को सम्यक् क्रिया कहा है उसमें कर्म और योग दोनों मार्गों का समावेश हो जाता है। क्योंकि सम्यक्चारित्र में मनोनिग्रह, इन्द्रिय-जय, चित्त-शुद्धि, समभाव और उनके लिए किये जानेवाले उपायों का समावेश होता है। मनोनिग्रह, इन्द्रिय-जय
आदि सात्विक यज्ञ ही कर्ममार्ग है और चित्त-शुद्धि तथा उसके लिए की जाने वाली सत्प्रवृत्ति ही योग मार्ग है। इस तरह कर्ममार्ग और योगमार्ग का मिश्रण ही सम्यक्चारित्र है । सम्यग्दर्शन ही भक्ति मार्ग है, क्योंकि भक्ति में श्रद्धा का अंश प्रधान है और सम्यग्दर्शन भी श्रद्धा रूप ही है। सम्यग्ज्ञान ही ज्ञानमार्ग है। इस प्रकार जैन दर्शन में बतलाये हुए मोक्ष के तीन साधन अन्य दर्शनों के सब साधनों का समुच्चय है ।
६-आत्मा स्वतंत्र तत्त्व है
कर्ग के संबन्ध में ऊपर जो कुछ कहा गया है उसकी ठीक-ठीक संगति तभी हो सकती है जब कि आत्मा को जड़ से अलग तत्त्व माना जाय । आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व नीचे लिखे सात प्रमाणों से जाना जा सकता है
( क ) स्वसंवेदनरूप साधक प्रमाण, (ख) बाधक प्रमाण का अभाव, (ग) निषेध से निषेध-कर्ता की सिद्धि, (घ) तर्क, (ङ) शास्त्र व महात्माओं का प्रामाण्य, च) आधुनिक विद्वानों की सम्मति और (छ) पुनर्जन्म ।
(क) स्वसंवेदनरूप साधक प्रमाण- यद्यपि सभी देहधारी अज्ञान के श्रावरण से न्यूनाधिक रूप में घिरे हुए हैं और इससे वे अपने ही अस्तित्व का संदेह करते हैं. तथापि जिस समय उनकी बुद्धि थोड़ी सी भी स्थिर हो जाती है उस समय उनको यह स्फुरणा होती है कि 'मैं हूँ। यह स्फुरणा कभी नहीं
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जैन धर्म और दर्शन होती कि 'मैं नहीं हूँ। इससे उलटा यह भी निश्चय होता है कि 'मैं नहीं हूँ'.यह बात नहीं । इसी बात को श्री शंकराचार्य ने भी कहा है
'सर्वो ह्यात्माऽस्तित्वं प्रत्येति, न नाहमस्मीति-ब्रह्म भाष्य १-१-१ ।' इसी निश्चय को ही स्वसंवेदन ( आत्मनिश्चय ) कहते हैं।
(ख) बाधक प्रमाण का अभाव-ऐसा कोई प्रमाण नहीं है जो आत्मा के अस्तित्व का बाध ( निषेध ) करता हो। इस पर यद्यपि यह शंका हो सकती है कि मन और इन्द्रियों के द्वारा आत्मा का ग्रहण न होना ही उसका बाध है। परन्तु इसका समाधान सहज है । किसी विषय का बाधक प्रमाण वही माना जाता है जो उस विषय को जानने की शक्ति रखता हो और अन्य सब सामग्री मौजूद होने पर उसे ग्रहण कर न सके। उदाहरणार्थ-आँख, मिट्टी के घड़े को देख सकती है पर जिस समय प्रकाश, समीपता श्रादि सामग्री रहने पर भी वह मिट्टी के घड़े को न देखे, उस समय उसे उस विषय की बाधक समझना चाहिए।
इन्द्रियाँ सभी भौतिक हैं । उनकी ग्रहणशक्ति बहूत परिमित है । वे भौतिक पदार्थों में से भी स्थूल, निकटवर्ती और नियत विषयों को ही ऊपर-ऊपर से जान सकती हैं । सूक्ष्म-दर्शक यन्त्र श्रादि साधनों की वही दशा है। वे अभी तक भौतिक प्रदेश में ही कार्यकारी सिद्ध हुए हैं । इसलिए उनका अभौतिक-अमूर्तअात्मा को जान न सकना बाध नहीं कहा जा सकता। मन, भौतिक होने पर भी इन्द्रियों का दास बन जाता है--- एक के पीछे एक, इस तरह अनेक विषयों में बन्दरों के समान दौड़ लगाता फिरता है----तब उसमें राजस व तामस वृत्तियों पैदा होती हैं । सात्त्विक भाव प्रकट होने नहीं पाता। यही बात गीता ( अ-२ श्लो० ६७) में भी कही हुई है
'इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते ।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायु वमिवाम्भसि ॥ इसलिए चंचल मन में आत्मा की स्फुरणा भी नहीं होती। यह देखी हुई बात है कि प्रतिबिम्ब ग्रहण करने की शक्ति, जिस दर्पण में वर्तमान है वह भी जब मलिन हो जाता है तब उसमें किसी वस्तु का प्रतिबिम्ब व्यक्त नहीं होता । इससे यह बात सिद्ध है कि बाहरी विषयों में दौड़ लगाने वाले अस्थिर मन से आत्मा का ग्रहण न होना उसका बाध नहीं, किन्तु मन की अशक्ति मात्र है।
इस प्रकार विचार करने से यह प्रमाणित होता है कि मन, इन्द्रियाँ, सूक्ष्म दर्शकयन्त्र आदि सभी साधन भौतिक होने से आत्मा का निषेध करने की शक्ति नहीं रखते ।
(ग) निषेध से निषेध-कर्ता की सिद्धि- कुछ लोग यह कहते हैं कि हमें आत्मा का निश्चय नहीं होता, बल्कि कभी-कभी उसके अभाव की स्फुरणा
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कर्मवाद
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हो पाती है; क्योंकि किसी समय मन में ऐसी कल्पना होने लगती है कि 'मैं नहीं हूँ' इत्यादि । परन्तु उनको जानना चाहिए कि उनकी यह कल्पना ही आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करती है । क्योंकि यदि आत्मा ही न हो तो ऐसी कल्पना का प्रादुर्भाव कैसे ? जो निषेध कर रहा है वह स्वयं ही अात्मा है । इस बात को श्रीशंकराचार्य ने अपने ब्रह्मसूत्र के भाष्य में भी कहा है'य एव ही निराकर्ता तदेव ही तस्य स्वरूपम् ।'
--अ. २ पा ३ अ. १ सू. ७ (ब) तक- यह भी आत्मा के स्वतंत्र अस्तित्व की पुष्टि करता है। वह कहता है कि जगत् में सभी पदार्थों का विरोधी कोई न कोई देखा जाता है। अन्धकार का विरोधी प्रकाश, उष्णता का विरोधी शैत्य और सुख का विरोधी दुःख । इसा तरह जड़ पदाथ का विरोधी भी कोई तत्त्व होना चाहिए।' जो तत्त्व जड़ का विरोधी है वहीं चेतन या आत्मा है।
इस पर यह तर्क किया जा सकता है कि 'जड़, चेतन ये दो स्वतंत्र विरोधी तत्त्व मानना उचित नहीं, परन्तु किसी एक ही प्रकार के मूल पदार्थ में जड़त्व व चेतनत्व दोनों शक्तियाँ मानना उचित है । जिस समय चेतनत्व शक्ति का विकास होने लगता है—उसकी व्यक्ति होती है-उस समय जड़त्व शक्ति का तिरोभाव रहता है। सभी चेतन शक्तिवाले प्राणी जड़ पदार्थ के विकास के ही परिणाम हैं। बे जड़ के अतिरिक्त अपना स्वतंत्र अस्तित्व नहीं रखते, किन्तु जड़त्व शक्ति का तिरोभाव होने से जीवधारी रूप में दिखाई देते हैं। ऐसा ही मन्तव्य हेगल
आदि अनेक पश्चिमीय विद्वानों का भी है। परन्तु उस प्रतिकूल तक का निवारण अशक्य नहीं है।
यह देखा जाता है कि किसी वस्तु में जब एक शक्ति का प्रादुर्भाव होता है तब उसमें दूसरी विरोधिनी शक्ति का तिरोभाव हो जाता है। परन्तु जो शक्ति तिरोहित हो जाती है वह सदा के लिए नहीं, किसी समय अनुकूल निमित्त मिलने
१ यह तर्क निर्मूल या अपमाण नहीं, बल्कि इस प्रकार का तर्क शुद्ध बुद्धि का चिह्न है । भगवान् बुद्ध को भी अपने पूर्व जन्म में अर्थात् सुमेध नामक ब्राह्मण के जन्म में ऐसा ही तर्क हुआ था । यथा___ यथा हि लोके दुक्खस्स पटिपक्वभूतं सुखं नाम अस्थि, एवं भवे सति तप्पटिपक्खेन विभवेनाऽपि भवितब्बं यथा च उरहे सति तस्स वूपसमभूतं सीतंऽपि अस्थि, एवं रागादीनं अग्गीनं वूपसमेन निबानेनाऽपि भवितब्ब।'
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जैन धर्म और दर्शन पर फिर भी उसका प्रादुर्भाव हो जाता है । इसी प्रकार जो शक्ति प्रादुर्भूत हुई होती है वह भी सदा के लिए नहीं । प्रतिकूल निमित्त मिलते ही उसका तिरोभाव हो जाता है। उदाहरणार्थं पानी के अणुओं को लीजिए, वे गरमी पाते ही भापरूप में परिमात हो जाते हैं, फिर शैत्य आदि निमित्त मिलते ही पानीरूप में बरसते हैं
और अधिक शीतत्व प्राप्त होने पर द्रवत्वरूप को छोड़ बर्फरूप में धनत्व को प्रात कर लेते हैं। • इसी तरह यदि जड़त्व चेतनत्व दोनों शक्तियों को किसी एक मूल तत्वगत मान लें, तो विकासवाद ही न ठहर सकेगा। क्योंकि चेतनत्व शक्ति के विकास के कारण जो आज चेतन (प्राणी) समझे जाते हैं वे ही सब जड़त्वशक्ति का विकास होने पर फिर जड़ हो जाएँगे। जो पाषाण आदि पदार्थ आज जरूप में दिखाई देते हैं वे कभी चेतन हो जाएँगे और चेतनरूप से दिखाई देनेवाले मनुष्य, पशु-पक्षी आदि प्राणी कभी जड़रूप भी हो जाएँगे। अतएव एक-एक पदार्थ में जड़त्व और चेतनत्व दोनों विरोधिनी शक्तियों को न मानकर जड़ व चेतन दो स्वतंत्र तत्त्वों को ही मानना ठीक है। • (ङ) शास्त्र व महात्माओं का प्रामाण्य-अनेक पुरातन शास्त्र भी आत्मा के स्वतंत्र अस्तित्व का प्रतिपादन करते हैं। जिन शास्त्रकारों ने बड़ी शान्ति व गम्भीरता के साथ श्रात्मा के विषय में खोज की है, उनके शास्त्रगत अनुभव को यदि हम बिना ही अनुभव किये चपलता से यों ही हँस दें तो, इसमें क्षुद्रता किसकी ? आजकल भी अनेक महात्मा ऐसे देखे जाते हैं कि जिन्होंने अपना जीवन पवित्रता पूर्वक श्रात्मा के विचार में ही बिताया। उनके शुद्ध अनुभव को हम यदि अपने भ्रान्त अनुभव के बल पर न मानें तो इसमें न्यूनता हमारी ही है। पुरातन शास्त्र और वर्तमान अनुभवी महात्मा निःस्वार्थ भाव से आत्मा के अस्तित्व को बतला रहे हैं।
(च) आधुनिक वैज्ञानिकों की सम्मति- आजकल लोग प्रत्येक विषय का खुलासा करने के लिए बहुधा वैज्ञानिक विद्वानों का विचार जानना चाहते हैं। यह ठीक है कि अनेक पश्चिमीय भौतिक-विज्ञान विशारद आत्मा को नहीं मानते या उसके विषय में संदिग्ध हैं। परन्तु ऐसे भी अनेक धुरन्धर वैज्ञानिक है कि जिन्होंने अपनी सारी आयु भौतिक खोज में बिताई है, पर उनकी दृष्टि भूतों से परे आत्मतत्त्व की ओर भी पहुँची है। उनमें से सर ऑलीवर लॉज और लॉर्ड केलविन, इनका नाम वैज्ञानिक संसार में मशहूर है । ये दोनों विद्वान् चेतन तत्व को जड़ से जुदा मानने के पक्ष में हैं। उन्होंने जड़वादियों की युक्तियों का खण्डन बड़ी सावधानी से व विचारसरणी से किया है। उनका मन्तब्य है
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कि चेतन के स्वतन्त्र अस्तित्व के सिवाय जीवधारियों के देह की विलक्षण रचना किसी तरह बन नहीं सकती। वे अन्य भौतिकवादियों की तरह मस्तिष्क को शान की जड़ नहीं समझते, किन्तु उसे ज्ञान के आविर्भाव का साधन मात्र सम
_____ डा० जगदीशचन्द्र बोस, जिन्होंने सारे वैज्ञानिक संसार में नाम पाया है, को खोज से यहाँ तक निश्चय हो गया है कि वनस्पतियों में भी स्मरण शक्ति विद्यमान है ! बोस महाशय ने अपने आविष्कारों से स्वतन्त्र प्रात्म-तत्त्व मानने के लिए वैज्ञानिक संसार को मजबूर किया है।
(छ) पुनर्जन्म-नीचे अनेक प्रश्न ऐसे हैं कि जिनका पूरा समाधान पुनर्जन्म माने बिना नहीं होता । गर्भ के प्रारम्भ से लेकर जन्म तक बालक को जो-जो कष्ट भोगने पड़ते हैं वे सब उस बालक की कृति के परिणाम हैं या उसके माता-पिता की कृति के ? उन्हें बालक की इस जन्म की कृति का परिणाम नहीं कह सकते, क्योंकि उसने गर्भावस्था में तो अच्छा-बुरा कुछ भी काम नहीं किया है। यदि माता-पिता की कृति का परिणाम कहें तो भी असंगत जान पड़ता है, क्योंकि माता-पिता अच्छा या बुरा कुछ भी करें उसका परिणाम बिना कारण बालक को क्यों भोगना पड़े ? बालक जो कुछ सुख-दुःख भोगता है वह यों ही बिना कारण भोगता है-यह मानना तो अज्ञान की पराकाष्ठा है, क्योंकि बिना कारण किसी कार्य का होना असम्भव है। यदि यह कहा जाय कि माता-पिता के आहार विहार का, विचार-व्यवहार का और शारीरिक-मानसिक अवस्थाओं का असर बालक पर गर्भावस्था से ही पड़ना शुरू होता है तो फिर भी सामने यह प्रश्न होता है कि बालक को ऐसे माता-पिता का संयोग क्यों हुआ? और इसका क्या समाधान है कि कभी-कभी बालक की योग्यता माता-पिता से बिलकुल ही जुदा प्रकार की होती है। ऐसे अनेक उदाहरण देखे जाते हैं कि माता-पिता बिलकुल अपढ़ होते हैं और लड़का पूरा शिक्षित बन जाता है। विशेष क्या ? यहाँ तक देखा जाता है कि किन्हीं-किन्हीं माता-पितात्रों की रुचि, जिस बात पर बिलकुल ही नहीं होती उसमें बालक सिद्धहस्त हो जाता है । इसका कारण केवल आसपास की परिस्थिति ही नहीं मानी जा सकती, क्योंकि समान परिस्थिति और बराबर देखभाल होते हुए भी अनेक विद्यार्थियों में विचार व व्यवहार की भिन्नता
१ इन दोनों चैतन्यवादियों के विचार की छाया, संवत् १६६१ के ज्येष्ठ मास के, १६६२ मार्गशीर्ष मास के और १६६५ के भाद्रपद मास के 'वसन्त' पत्र में प्रकाशित हुई है।
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जैन धर्म और दर्शन देखी जाती है। यदि कहा जाए कि यह परिणाम बालक के अद्भुत ज्ञानतंतुओं का है, तो इस पर यह शंका होती है कि बालक का देह माता-पिता के शुक्रशोणित से बना होता है, फिर उनमें अविद्यमान ऐसे ज्ञानतंतु बालक के मस्तिष्क में आए कहाँ से? कहीं-कहीं माता-पिता की सी ज्ञानशक्ति बालक में देखी जाती है सही, पर इसमें भी प्रश्न है कि ऐसा सुयोग क्यों मिला ? किसी-किसी जगह यह भी देखा जाता है कि माता-पिता की योग्यता बहुत बढ़ी-बढ़ी होती है और उनके सौ प्रयत्न करने पर भी लड़का गँवार ही रह जाता है।।
यह सबको विदित ही है कि एक साथ- युगलरूप से---जन्मे हुए दो बालक भी समान नहीं होते । माता-पिता की देख-भाल बराबर होने पर भी एक साधारण ही रहता है और दूसरा कहीं आगे बढ़ जाता है। एक का पिण्ड रोग से नहीं छूटता और दूसरा बड़े-बड़े कुश्तीवाजों से हाथ मिलाता है। एक दीर्घजीवी बनता है और दूसरा सौ यत्न होते रहने पर भी यम का अतिथि बन जाता है। एक की इच्छा संयत होती है और दूसरे की असंयत ।
जो शक्ति, महावीर में, बुद्ध में, शङ्कराचार्य मे थी वह उनके माता-पिताओं में न थी। हेमचन्द्राचार्य की प्रतिभा के कारण उनके माता-पिता नहीं माने जा सकते। उनके गुरु भी उनकी प्रतिभा के मुख्य कारण नहीं, क्योंकि देवचन्द्रसूरि के हेमचन्द्राचार्य के सिवाय और भी शिष्य थे, फिर क्या कारण है कि दूसरे शिष्यों का नाम लोग जानते तक नहीं और हेमचन्द्राचार्य का नाम इतना प्रसिद्ध है ? श्रीमती एनी बिसेन्ट में जो विशिष्ट शक्ति देखी जाती है वह उनके मातापिताओं में न थी और न उनकी पुत्री मे भी। अच्छा, और भी कुछ प्रामाणिक उदाहरणों को देखिए ---
प्रकाश की खोज करनेवाले डा० यंग दो वर्ष की उम्र में पुस्तक को बहुत अच्छी तरह बाँच सकते थे। चार वर्ष की उम्र में वे दो दफे बाइबल पढ़ चुके थे। सात वर्ष की अवस्था में उन्होंने गणितशास्त्र पढ़ना प्रारम्भ किया था और तेरह वर्ष की अवस्था में लेटिन, ग्रीक, हिब्रु, फ्रेंच, इटालियन आदि भाषाएँ सीख ली थीं। सर विलियम रोवन हेमिल्ट, इन्होंने तीन वर्ष की उम्र में हिब्र भाषा सीखना आरंभ किया और सात वर्ष की उम्र में उस भाषा में इतना नैपुण्य प्रास किया कि डब्लिन की ट्रीनिटी कालेज के एक फेलो को स्वीकार करना पड़ा कि कालेज के फेलो के पद के प्रार्थियों में भी उनके बराबर ज्ञान नहीं है और तेरह वर्ष की वय में तो उन्होंने कम से कम तेरह भाषा पर अधिकार जमा लिया था । ई० सं० १८६२ में जन्मी हुई एक लड़की ई० सं० १६०२ मे --दस वर्ष की अवस्था में एक नाटकमण्डल में संमिलित हुई थी। उसने उस अवस्था में
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कई नाटक लिखे थे । उसकी माता के कथनानुसार वह पाँच वर्ष की वय में कई छोटी-मोटी कविताएँ बना लेती थी। उसकी लिखी हुई कुछ कविताएँ महारानी विक्टोरिया के पास थीं। उस समय उस बालिका का अंग्रेजी ज्ञान भी आश्चर्यजनक था, वह कहती थी कि मैं अंग्रेजी पढ़ी नहीं हूँ, परन्तु उसे जानती हूँ । उक्त उदाहरणों पर ध्यान देने से यह स्पष्ट जान पड़ता है कि इस जन्म में देखी जानेवाली सब विलक्षणताएँ न तो वर्तमान जन्म की कृति का ही परिग्राम है, न माता-पिता के केवल संस्कार का ही, और न केवल परिस्थिति का ही । इसलिए आत्मा के अस्तित्व की मर्यादा को गर्भ के आरंभ समय से और भी पूर्व मानना चाहिए। वही पूर्व जन्म है। पूर्व जन्म में इच्छा या प्रवृत्ति द्वारा जो संस्कार संचित हुए हों उन्हीं के आधार पर उपर्युक्त शङ्काओं तथा विलक्षणताओं का सुसंगत समाधान हो जाता है। जिस युक्ति से एक पूर्व जन्म सिद्ध हुआ उसी के बल पर से अनेक पूर्व जन्म की परंपरा सिद्ध हो जाती है । क्योंकि अपरिमित ज्ञानशक्ति एक जन्म के अभ्यास का फल नहीं हो सकता। इस प्रकार आत्मा, देह से जुदा अनादि सिद्ध होता है । अनादि तत्व का कभी नाश नहीं होता इस सिद्धान्त को सभी दार्शनिक मानते हैं। गीता में भी कहा गया है'नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।"
- श्र० २ श्लो० १६ इतना ही नहीं, बल्कि वर्तमान शरीर के बाद श्रात्मा का अस्तित्व माने बिना अनेक प्रश्न हल ही नहीं हो सकते ।
तो प्रामाणिक जीवन बिताते
बहुत लोग ऐसे देखे जाते हैं कि वे इस जन्म में हैं परन्तु रहते हैं दरिद्री और ऐसे भी देखे जाते हैं कि जो न्याय, नीति और धर्म का नाम सुनकर चिढ़ते हैं परन्तु होते हैं वे सब तरह से सुखी । ऐसी अनेक व्यक्तियाँ मिल सकती हैं जो हैं तो स्वयं दोषी और उनके दोषों का अपराधों का — फल भोग रहे हैं दूसरे एक हत्या करता है और दूसरा पकड़ा जाकर फांसी पर लटकाया जाता है। एक करता है चोरी और पकड़ा जाता है दूसरा । अब इस पर विचार करना चाहिए कि जिनको अपनी अच्छी या बुरी कृति का बदला इस जन्म में नहीं मिला, उनकी कृति क्या यों ही विफल हो जाएगी ! यह कहना कि कृति विफल नहीं होती, यदि कर्ता को फल नहीं मिला तो भी उसका
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सर समाज के या देश के अन्य लोगों पर होता ही है- सो भी ठीक नहीं । क्योंकि मनुष्य जो कुछ करता है वह सत्र दूसरों के लिए ही नहीं । रात-दिन परोपकार करने में निरत महात्माओं की भी इच्छा, दूसरों की भलाई करने के निमित्त से अपना परमात्मत्व प्रकट करने की ही रहती है। विश्व की व्यवस्था में इच्छा क
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जैन धर्म और दर्शन बहुत ऊँचा स्थान है । ऐसी दशा में वर्तमान देह के साथ इच्छा के मूल का भी नाश मान लेना युक्तिसंगत नहीं। मनुष्य अपने जीवन की आखिरी घड़ी तक ऐसी ही कोशिश करता रहता है जिससे कि अपना भला हो । यह नहीं कि ऐसा करनेवाले सब भ्रान्त ही होते हैं । बहुत आगे पहुँचे हुए स्थिरचित्त व शान्त प्रज्ञावान् योगी भी इसी विचार से अपने साधन को सिद्ध करने की चेष्टा में लगे होते हैं कि इस जन्म में नहीं तो दूसरे में ही सही, किसी समय हम परमात्मभाव को प्रकट कर ही लेंगे। इसके सिवाय सभी के चित्त में यह स्फुरणा हुआ करती है कि मैं बराबर कायम रहूँगा। शरीर, नाश होने के बाद चेतन का अस्तित्व यदि न माना जाय तो व्यक्ति का उद्देश्य कितना संकुचित बन जाता है और कार्यक्षेत्र भी कितना अल्प रह जाता है ?
औरों के लिए जो कुछ किया जाय परन्तु वह अपने लिए किये जानेवाले कामों के बराबर हो नहीं सकता । चेतन की उत्तर मर्यादा को वर्तमान देह के अन्तिम क्षण तक मान लेने से व्यक्ति को महत्त्वाकांक्षा एक तरह से छोड़ देनी पड़ती है। इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में सही, परन्तु मैं अपना उद्देश्य अवश्य सिद्ध करूँगा-यह भावना मनुष्य के हृदय में जितना बल प्रकटासकती है उतना बल अन्य कोई भावना नहीं प्रकटा सकती। यह भी नहीं कहा जा सकता कि उक्त भावना मिथ्या है, क्योंकि उसका आविर्भाव नैसर्गिक और सर्वविदित है। विकासवाद भले ही भौतिक रचनाओं को देखकर जड़ तत्त्वों पर खड़ा किया गया हो, पर उसका विषय चेतन भी बन सकता है। इन सब बातों पर ध्यान देने से यह माने बिना संतोष नहीं होता कि चेतन एक स्वतंत्र तत्त्व है। वह जानते या अनजानते जो अच्छा-बुरा कर्म करता है उसका फल, उसे भोगना हो पड़ता है और इसलिए उसे पुनर्जन्म के चक्कर में घूमना पड़ता है | बुद्ध भगवान् ने भी पुनर्जन्म माना है | पक्का निरीश्वरवादी जर्मन पण्डित निटशे, कर्मचक्रकृत पुनर्जन्म को मानता है। यह पनर्जन्म का स्वीकार अात्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व को मानने के लिए प्रबल प्रमाण है। १०-कर्म-तत्त्व के विषय में जैनदर्शन की विशेषता ___जैनदर्शन में प्रत्येक कर्म की बध्यमान, सत् और उदयमान थे तीन अवस्थाएँ मानी हुई हैं। उन्हें क्रमशः बन्ध, सत्ता और उदय कहते हैं । जैनेतर दर्शनों में भी कर्म की उन अवस्थाओं का वर्णन है। उनमें बध्यमान कर्म को 'क्रियमाण', सत्कर्म को 'संचित' और उदयमान कर्म को 'प्रारब्ध', कहा है। किन्तु जैनशास्त्र में ज्ञानावरणीय आदिरूप से कर्म का ८ तथा १४८ भेदों में वर्गीकरण किया है
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और इनके द्वारा संसारी आत्मा की अनुभवसिद्ध भिन्न-भिन्न अवस्थाओं का जैसा खुलासा किया गया है वैसा किसी भी जैनेतर दर्शन में नहीं है । पातजलदर्शन में कर्म के जाति, आयु और भोग तीन तरह के विपाक बतलाए हैं, परन्तु जैन दर्शन में कर्म के संबन्ध में किये गये विचार के सामने वह वर्णन नाम मात्र का है।
श्रात्मा के साथ कम का बन्ध कैसे होता है ? किन-किन कारण से होता है ? किस कारण से कम में कैसी शक्ति पैदा होती है ? कम', अधिक से अधिक और कम से कम कितने समय तक आत्मा के साथ लगा रह सकता है ? श्रात्मा के साथ लगा हुआ भी कम, कितने समय तक विपाक देने में असमर्थ है ? विपाक का नियत समय भी बदला जा सकता है या नहीं ? यदि बदला जा सकता है तो उसके लिए कैसे आत्मपरिणाम आवश्यक हैं ? एक कर्म, अन्य कर्मरूप कत्र बन सकता है ? उसकी बन्धकालीन तीव्रमन्द शक्तियाँ किस प्रकार बदली जा सकती हैं ? पीछे से विपाक देनेवाला कर्म पहले ही कब और किस तरह भोगा जा सकता है ? कितना भी बलवान् कम क्यों न हो, पर उसका विपाक शुद्ध
आत्मिक परिणामों से कैसे रोक दिया जाता है ? कभी-कभी आत्मा के शतशः प्रयत्न करने पर भी कम, अपना विपाक बिना भोगवाए नहीं छूटता ? आत्मा किस तरह कर्म का कर्ता और किस तरह भोक्ता है ? इतना होने पर भी वस्तुतः आत्मा में कम का कर्तृव्य और भोक्तृत्व किस प्रकार नहीं है ? संक्लेशरूप परिणाम अपनी आकर्षण शक्ति से आत्मा पर एक प्रकार की सूक्ष्म रज का पटल किस तरह डाल देते हैं ? अात्मा वीर्य-शक्ति के आविर्भाव के द्वारा इस सूक्ष्म रज के पटल को किस तरह उठा फेंक देता है ? स्वभावतः शुद्ध प्रात्मा भी कर्म के प्रभाव से किस-किस प्रकार मलीन सा दीखता है ? और बाह्य हजारों श्रावरणों के होने पर भी प्रात्मा अपने शुद्ध स्वरूप से च्युत किस तरह नहीं होता है ? वह अपनी उत्क्रान्ति के समय पूर्व बद्ध तीव्र कर्मों को भी किस तरह हटा देता है ? वह अपने वर्तमान परमात्मभाव को देखने के लिए जिस समय उत्सुक होता है उस समय उसके, और अन्तरायभूत कर्म के बीच कैसा द्वन्द्व (युद्ध) होता है ? अन्त में वीर्यवान् श्रात्मा किस प्रकार के परिणामों से बलवान् कर्मों को कमजोर करके अपने प्रगति-मार्ग को निष्कएटक करता है ? आत्म-मन्दिर में वर्तमान परमात्मदेव का साक्षात्कार कराने में सहायक परिणाम, जिन्हें 'अपूर्वकरण' तथा 'अनिवृत्तिकरण' कहते हैं. उनका क्या स्वरूप है ? जीव अपनी शुद्ध परिणाम-तरंगमाला के वैद्युतिक यन्त्र से कर्म के पहाड़ों को किस कदर चूर-चूर कर डालता है ? कभी-कभी गुलाट खाकर कम हो, जो कुछ देर के लिए दबे होते हैं, वे ही प्रगतिशील प्रात्म.
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जैन धर्म और दर्शन को किस तरह नीचे पटक देते हैं ? कौन-कौन कर्म, बन्ध की व उदय की अपेक्षा
आपस में विरोधी हैं ? किस कर्म का बन्ध किस अवस्था में अवश्यम्भावी और किस अवस्था में अनियत है ? किस कर्म का विपाक किस हालत तक नियत और किस हालत में अनियत है ? आत्मसंबद्ध अतीन्द्रिय कर्मराज किस प्रकार की
आकर्षण शक्ति से स्थूल पुद्गलों को खींचा करता है और उनके द्वारा शरीर, मन, सूक्ष्मशरीर आदि का निर्माण किया करता है ? इत्यादि संख्यातीत प्रश्न, जो कर्म से संबन्ध रखते हैं, उनका सयुक्तिक, विस्तृत व विशद खुलासा जैन कर्मसाहित्य के सिवाय अन्य किसी भी दर्शन के साहित्य से नहीं किया जा सकता। यही कमतत्व के विषय में जैनदर्शन की विशेषता है ।
'कर्मविपाक' ग्रन्थ का परिचय संसार में जितने प्रतिष्ठित सम्प्रदाय (धर्मसंस्थाएँ ) हैं उन सबका साहित्य दो विभागों में विभाजित है-(१। तत्त्वज्ञान और (२) प्राचार व क्रिया ।
ये दोनों विभाग एक दूसरे से बिलकुल ही अलग नहीं हैं। उनका संबन्ध वैसा ही है जैसा शरीर में नेत्र और हाथ-पैर अादि अन्य अवयवों का । जैनसम्प्रदाय का साहित्य भी तत्त्वज्ञान और प्राचार इन दोनों विभागों में बँटा हुआ है। यह ग्रन्थ पहले विभाग से संबन्ध रखता है, अर्थात् इसमें विधिनिषेधात्मक . क्रिया का वर्णन नहीं है, किन्तु इसमें वर्णन है तत्त्व का। यों तो जैनदर्शन में अनेक तत्त्वों पर विविध दृष्टि से विचार किया है पर इस ग्रन्थ में उन सब का वर्णन नहीं है । इसमें प्रधानतया कर्मतत्त्व का वर्णन है। श्रात्मवादी सभी दर्शन किसी न किसी रूप में कर्म को मानते ही हैं, पर जैन दर्शन इस संबन्ध में अपनी असाधारण विशेषता रखता है अथवा यों कहिए कि कम तत्त्त के विचार प्रदेश में जैनदर्शन अपना सानी नहीं रखता, इसलिए इस ग्रन्थ को जैनदर्शन की विशेषता का या जैन दशन के विचारणीय तत्त्व का ग्रन्थ कना उचित है। विशेष परिचय
इस ग्रन्थ का अधिक परिचय करने के लिए इसके नाम, विषय, वर्णनक्रम, रचना का मूलाधार, परिमाण, भाषा, कर्ता आदि बातों की ओर ध्यान देना जरूरी है।
नाम- इस ग्रन्थ के कर्मविपाक' और 'प्रथम कर्मग्रन्थ' इन दो नामों में से पहला नाम तो विषयानुरूप है तथा उसका उल्लेख स्वयं ग्रन्थकार ने आदि में
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'कर्मfource '
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'कम्मवित्रागं समासश्रो वुच्छं' तथा अन्त में 'इ कम्मविवागोऽयं' इस कथन से स्पष्ट ही कर दिया है । परन्तु दूसरे नाम का उल्लेख कहीं भी नहीं किया है । वह नाम केवल इसलिए प्रचलित हो गया है कि कर्मस्तव आदि अन्य कर्मविषयक ग्रन्थों से यह पहला है; इसके बिना पढ़े कर्मस्तव श्रादि गले प्रकरणों में प्रवेश ही नहीं हो सकता । पिछला नाम इतना प्रसिद्ध है कि पढ़ने-पढ़ाने वाले तथा अन्य लोग प्रायः उसी नाम से व्यवहार करते हैं । 'पहला कर्मग्रन्थ', इस प्रचलित नाम से मूल नाम यहाँ तक प्रसिद्ध सा हो गया है कि कर्मविपाक कहने से बहुत से लोग कहनेवाले का आशय ही नहीं समझते । यह बात इस प्रकरण के विषय में ही नहीं, बल्कि कर्मस्तव आदि अग्रिम प्रकरणों के विषय में भी बराबर लागू पड़ती है । अर्थात् कर्मस्तव, बन्धस्वामित्व, षडशीतिक, शतक और सप्ततिका कहने से क्रमशः दूसरे, तीसरे, चौथे, पाँचवें और छट्ठे प्रकरण का मतलब बहुत कम लोग समझेंगे; परन्तु दूसरा तीसरा, चौथा, पाँचवाँ और छठा कर्मग्रन्थ कहने से सब लोग कहनेवाले का भाव समझ लेंगे ।
विषय - इस ग्रन्थ का विषय कर्मतत्त्व है, पर इसमें कर्म से संबन्ध रखने वाली अनेक बातों पर विचार न करके प्रकृति श्रंश पर ही प्रधानतया विचार किया 'है, अर्थात् कर्म की सत्र प्रकृतियों का विपाक ही इसमें मुख्यतया वर्णन किया गया है । इसी अभिप्राय से इसका नाम भी 'कर्मविपाक' रक्खा गया है ।
वन क्रम - इस ग्रन्थ में सबसे पहले यह दिखाया है कि कर्मबन्ध स्वाभाविक नहीं, किन्तु सहेतुक है । इसके बाद कर्म का स्वरूप परिपूर्ण बताने के लिए उसे चार अंशों में विभाजित किया है - ( १ ) प्रकृति, (२) स्थिति, (३) रस और (४) प्रदेश | इसके बाद आठ प्रकृतियों के नाम और उनके उत्तर भेदों की संख्या बताई गई है । अनन्तर ज्ञानावरणीयकर्म के स्वरूप को दृष्टान्त, कार्य और कारण द्वारा दिखलाने के लिए प्रारम्भ में ग्रन्थकार ने ज्ञान का निरूपण किया है | ज्ञान के पाँच भेदों को और उनके अवान्तर भेदों को संक्षेप में, परन्तु तत्त्वरूप से दिखाया है। ज्ञान का निरूपण करके उसके आवरणभूत कर्म का दृष्टान्त द्वारा उद्घाटन ( खुलासा ) किया है । अनन्तर दर्शनावरण कर्म को दृष्टान्त द्वारा समझाया है । पीछे उसके भेदों को दिखलाते हुए दर्शन शब्द का
बतलाया है ।
दर्शनावरणीय कर्म के भेदों में पाँच प्रकार की निद्रात्रों का सर्वानुभवसिद्ध स्वरूप, संक्षेप में, पर बड़ी मनोरंजकता से वर्णन किया है । इसके बाद क्रम से सुख-दुःखजनक वेदनीयकर्म, सद्विश्वास और सच्चारित्र के प्रतिबन्धक मोहनीयकर्म,
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जैन धर्म और दर्शन
नाम
अक्षय जीवन के वरोधी श्रयुकर्म, गति, जाति आदि अनेक अवस्थाओं के जनक उच्च-नीच गोत्रजनक गोत्रकर्म और लाभ आदि में रुकावट करनेवाले अन्तराय कर्म का तथा उन प्रत्येक कर्म के भेदों का थोड़े में, किन्तु अनुभवसिद्ध वर्णन किया है । अन्त में प्रत्येक कर्म के कारण को दिखाकर है । इस प्रकार इस ग्रन्थ का प्रधान विषय कर्म का विपाक है, इसमें जो कुछ कहा गया है उस सबको संक्षेप में पाँच सकते हैं
ग्रन्थ समाप्त किया
तथापि प्रसंगवश विभागों में बाँट
( १ ) प्रत्येक कर्म के प्रकृति आदि चार अंशों का कथन, ( २ ) कर्म की मूल तथा उत्तर प्रकृतियाँ, ( ३ ) पाँच प्रकार के ज्ञान और चार प्रकार के दर्शन का वर्णन, ( ४ ) सब प्रकृतियों का दृष्टान्त पूर्वक कार्य कथन, (५) सत्र प्रकृतियों के कारण का कथन ।
आधार - यों तो यह ग्रन्थ कर्मप्रकृति, पञ्चसंग्रह आदि प्राचीनतर ग्रन्थों के आधार पर रचा गया है परन्तु इसका साक्षात् आधार प्राचीन कर्मविपाक है जो श्री गर्ग ऋषि का बनाया हुआ है। प्राचीन कर्मग्रन्थ १६६ गाथा प्रमाण होने से पहले पहल कर्मशास्त्र में प्रवेश करनेवालों के लिए बहुत विस्तृत हो जाता है, इसलिए उसका संक्षेप केवल ६१ गाथाओं में कर दिया गया है । इतना संक्षेप होने पर भी इसमें प्राचीन कर्मविपाक की खास व तात्त्विक बात कोई भी नहीं छूटी है । इतना ही नहीं, बल्कि संक्षेप करने में ग्रन्थकार ने यहाँ तक ध्यान रखा है कि कुछ अति उपयोगी नवीन विषय, जिनका वर्णन प्राचीन कर्मविपाक में नहीं है उन्हें भी इस ग्रन्थ में दाखिल कर दिया है। उदाहरणार्थ - श्रुतज्ञान के पर्याय श्रादि २० भेद तथा आठ कर्मप्रकृतियों के बन्ध के हेतु, प्राचीन कर्मविपाक में नहीं हैं, पर उनका वर्णन इसमें है । संक्षेप करने में ग्रन्थकार ने इस तत्व की ओर भी ध्यान रखा है कि जिस एक बात का वर्णन करने से अन्य बातें भी समानता के कारण सुगमता से समझी जा सकें वहाँ उस बात को ही बतलाना, अन्य को नहीं । इसी अभिप्राय से, प्राचीन कर्मविपाक में जैसे प्रत्येक मूल या उत्तर प्रकृति का विपाक दिखाया गया है वैसे इस ग्रन्थ में नहीं दिखाया है । परन्तु श्रावश्यक वक्तव्य में कुछ भी कमी नहीं की गई हैं। इसी से इस ग्रन्थ का प्रचार सर्वसाधारण हो गया है। इसके पढ़नेवाले प्राचीन कर्मविपाक को बिना टीका-टिप्पण के अनायास ही समझ सकते हैं। यह ग्रन्थ संक्षेपरूप होने से सब को मुख-पाठ करने में व याद रखने में बड़ी आसानी होती है। इसी से प्राचीन कर्मविपाक के छुप जाने पर भी इसकी चाह और माँग में कुछ भी कमी नहीं हुई है । इस कर्मविपाक की अपेक्षा प्राचीन कर्मविपाक बड़ा है सही, पर वह भी
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कर्मग्रन्थों के कर्त्ता
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उससे पुरातन ग्रन्थ का संक्षेप ही है, यह बात उसकी आदि में वर्तमान 'वोच्छं कम्मविवागं गुरुवइट्ठ समासेण' इस वाक्य से स्पष्ट है ।
भाषा - यह कर्मग्रन्थ तथा इसके आगे के अन्य सभी कर्मग्रन्थों का मूल प्राकृत भाषा में हैं। इनकी टीका संस्कृत में है। मूल गाथाएँ ऐसी सुगम भाषा में रची हुई हैं कि पढ़ने वालों को थोड़ा बहुत संस्कृत का बोध हो और उन्हें कुछ प्राकृत के नियम समझा दिये जाएँ तो वे मूल गाथाओं के ऊपर से ही विषय का परिज्ञान कर सकते हैं । संस्कृत टीका भी बड़ी विशद भाषा में खुलासे के साथ लिखी गई है जिससे जिज्ञासुत्रों को पढ़ने में बहुत सुगमता होती है ।
ग्रन्थकार की जीवनी
( १ ) समय- प्रस्तुत ग्रन्थ के कर्ता श्री देवेन्द्रसूरि का समय विक्रम की १३ वीं शताब्दी का अन्त और चौदहवीं शताब्दी का आरम्भ है। उनका स्वर्गवास वि० सं० १३३७ में हुआ ऐसा उल्लेख गुर्वावली में स्पष्ट है परन्तु उनके जन्म, दीक्षा, सूरिपद आदि के समय का उल्लेख कहीं नहीं मिलता; तथापि यह जान पड़ता है कि १२८५ में श्री जगच्चन्द्रसूरि ने तपागच्छ की स्थापना की, तत्र वे दीक्षित होंगे। क्योंकि गच्छस्थापना के बाद श्रीजगचन्द्रसूरि के द्वारा ही श्रीदेवेन्द्रसूर और श्री विजयचन्द्रसूरि को सूरिपद दिए जाने का वर्णन गुर्वावली में है । यह तो मानना ही पड़ता है कि सूरिपद ग्रहण करने के समय, श्री देवेन्द्रसूरि वय, विद्या और संयम से स्थविर होंगे । अन्यथा इतने गुरुतर पद का और खास करके नवीन प्रतिष्ठित किये गए तपागच्छ के नायकत्व का भार वे कैसे सम्हाल सकते ?
उनका सूरिपद वि० सं० १२८५ के बाद हुआ । सूरिपद का समय अनुमान वि० सं० १३०० मान लिया जाए, तब भी यह कहा जा सकता है कि तपागच्छ की स्थापना के समय वे नवदीक्षित होंगे। उनकी कुल उम्र ५० या ५२ वर्ष की मान ली जाए तो यह सिद्ध है कि वि० सं० १२७५ के लगभग उनका जन्म हुआ होगा । वि० सं० १३०२ में उन्होंने उज्जयिनी में श्रेष्ठिवर जिनचन्द्र के पुत्र वीरवल को दीक्षा दी, जो ग्रागे विद्यानन्दसूरि के नाम से विख्यात हुए । उस समय देवेन्द्रसूरि की उम्र २५-२७ वर्ष की मान ली जाए तब भी उक्त अनुमान की - १२७५ के लगभग जन्म होने की पुष्टि होती है । अस्तु जन्म का, दीक्षा का तथा सूरिपद का समय निश्चित न होने पर भी इस बात में कोई संदेह नहीं
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१ देखो श्लोक १७४ | २ देखो श्लोक १०७ ।
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जैनधर्म और दर्शन है कि वे विक्रम की १३ वीं शताब्दी के अन्त में तथा चौदहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में अपने अस्तित्व से भारतवर्ष की, और खासकर गुजरात. तथा मालवा की शोभा बढ़ा रहे थे।
(२) जन्मभूमि, जाति आदि-श्री देवेन्द्रसूरि का जन्म किस देश में, किस जाति और किस परिवार में हुआ इसका कोई प्रमाण अब तक नहीं मिला । गुर्वावली में ' उनके जीवन का वृत्तान्त है, पर वह बहुत संक्षिप्त है। उसमें सूरिपद ग्रहण करने के बाद की बातों का उल्लेख है, अन्य बातों का नहीं। इसलिए उसके आधार पर उनके जीवन के संबन्ध में जहाँ कहीं उल्लेख हुआ है वह अधूरा ही है । तथापि गुजरात और मालवा में उनका अधिक विहार, इस अनुमान की सूचना कर सकता है कि वे गुजरात या मालवा में से किसी देश में जन्मे होंगे । उनकी जाति और माता-पिता के संबन्ध में तो साधन के अभाव से किसी प्रकार के अनुमान को अवकाश ही नहीं है।
(३) विद्वत्ता और चारित्रतत्परता- श्री देवेन्द्रसूरिजी जैनशास्त्र के पूरे विद्वान् थे इसमें तो कोई सन्देह ही नहीं, क्योंकि इस बात की गवाही उनके ग्रन्थ ही दे रहे हैं। अब तक उनका बनाया हुआ ऐसा कोई ग्रन्थ देखने में नहीं श्राया जिसमें कि उन्होंने स्वतन्त्र भाव से षड्दर्शन पर अपने विचार प्रकट किये हों; परन्तु गुर्वावली के वर्णन से पता चलता है कि वे षड्दर्शन के मार्मिक विद्वान् थे और इसी से मन्त्रीश्वर वस्तुपाल तथा अन्य-अन्य विद्वान उनके व्याख्यान में अाया करते थे। यह कोई नियम नहीं है कि जो जिस विषय का पण्डित हो वह उस पर ग्रन्थ लिखे ही, कई कारणों से ऐसा नहीं भी हो सकता। परन्तु श्री देवेन्द्रसूरि का जैनागमविषयक ज्ञान हृदयस्पर्शी था यह बात असन्दिग्ध है। उन्होंने पाँच कर्मग्रन्थ-जो नवीन कर्मग्रन्थ के नाम से प्रसिद्ध हैं (और जिनमें से यह पहला है) सटीक रचे हैं । टीका इतनी विशद और सप्रमाण है कि उसे देखने के बाद प्राचीन कर्मग्रन्थ या उसकी टीकाएँ देखने की जिज्ञासा एक तरह से शान्त हो जाती है। उनके संस्कृत तथा प्राकृत भाषा में रचे हुए अनेक ग्रन्थ इस बात की स्पष्ट सूचना करते हैं कि वे संस्कृत तथा प्राकृत भाषा के प्रखर पण्डित थे ।
श्री देवेन्द्रसूरि केवल विद्वान् ही न थे किन्तु वे चारित्रधर्म में बड़े दृढ़ थे। इसके प्रमाण में इतना ही कहना पर्याप्त है कि उस समय क्रियाशिथिलता को देखकर श्री जगच्चन्द्र सूरि ने बड़े पुरुषार्थ और निःसीम त्याग से, जो क्रियोद्धार किया था उसका निर्वाह श्री देवेन्द्रसूरि ने ही किया । यद्यपि श्री जगच्चन्द्रसूरि ने
१ देखो श्लोक १०७ से भागे।
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कर्मग्रन्थों के कर्ता
२४३ श्री देवेन्द्रसूरि तथा श्री विजयचन्द्रसूरि दोनों को प्राचार्यपद पर प्रतिष्ठित किया था, तथापि गुरु के प्रारम्भ किये हुए क्रियोद्धार के दुर्धर कार्य को श्री देवेन्द्र सूरि ही सम्हाल सके । तत्कालीन शिथिलाचार्यों का प्रभाव उन पर कुछ भी नहीं पड़ा। इससे उलटा श्री विजयचन्द्रसूरि, विद्वान् होने पर भी प्रमाद के चंगुल में फंस गए और शिथिलाचारी हुए' । अपने सहचारी को शिथिल देख, समझाने पर भी उनके न समझने से अन्त में श्रीदेवेन्द्रसूरि ने अपनी क्रियारुचि के कारण उनसे अलग होना पसंद किया। इससे यह बात साफ प्रमाणित होती है कि वे बड़े हद मन के और गुरुभक्त थे । उनका हृदय ऐसा संस्कारी था कि उसमें गुण का प्रतिबिम्ब तो शीघ्र पड़ जाता था पर दोष का नहीं; क्योंकि दसवीं, ग्यारहवीं, बारहवीं और तेरहवीं शताब्दी में जो श्वेताम्बर तथा दिगम्बर संप्रदाय के अनेक असाधारण विद्वान् हुए, उनकी विरता, ग्रन्थनिर्माणपटुता और चारित्रप्रियता आदि गुणों का प्रभाव तो श्री देवेन्द्रसरि के हृदय पर पड़ा, परन्तु उस समय जो अनेक शिथिलाचारी थे, उनका असर इन पर कुछ भी नहीं पड़ा। __श्री देवेन्द्रसूरि के शुद्धक्रियापक्षपाती होने से अनेक मुमुक्षु, जो कल्याणार्थी व संविग्न-पादिक थे वे आकर उनसे मिल गए थे। इस प्रकार उन्होंने ज्ञान के • समान चारित्र को भी स्थिर रखने व उन्नत करने में अपनी शक्ति का उपयोग किया था ।
(४) गुरु-श्री देवेन्द्रसूरि के गुरु थे श्रीजगचन्द्र सूरि जिन्होंने श्री देवभद्र उपाध्याय की मदद से क्रियोद्धार का कार्य प्रारम्भ किया था। इस कार्य में उन्होंने अपनी असाधारण त्यागवृत्ति दिखाकर औरों के लिए आदर्श उपस्थित किया था। उन्होंने आजन्म आयंबिल व्रत का नियम लेकर घी, दूध आदि के लिए जैन-शास्त्र में व्यवहार किये गए विकृति शब्द को यथार्थ सिद्ध किया। इसी कठिन तपस्या के कारण बड़गच्छ का 'तपागच्छ' नाम, हुआ और वे तपागच्छ के आदि सूत्रधार कहलाए । मन्त्रीश्वर वस्तुपाल ने गच्छ परिवर्तन के
१ देखो गुर्वावली पद्य १२२ से उनका जीवनवृत्त ।।
२ उदाहरणार्थ-श्री गर्गऋषि, जो दसवीं शताब्दी में हुए, उनके कर्मविपाक का संदेप इन्होंने किया । श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती, जो ग्यारहवीं शताब्दी में हुए, उनके रचित गोम्मटसार से श्रुतज्ञान के पदभुतादि बीस भेद पहले कम ग्रन्थ में दाखिल किये जो श्वेताम्बरीय अन्य ग्रंथों में अब तक देखने में नहीं पाए । श्री मलयगिरिसूरि, जो बारहवीं शताब्दी में हुए, उनके ग्रंथ के तो वाक्य के वाक्य इनकी बनाई टीका आदि में दृष्टिगोचर होते हैं।
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________________ 244 जैन धर्म और दर्शन समय श्री जगञ्चन्द्रसूरीश्वर की बहुत अर्चापूजा की। श्री जगच्चन्द्रसूरि तपस्वी ही न थे किन्तु वे प्रतिभाशाली भी थे, क्योंकि गुर्वावली में यह वर्णन है कि उन्होंने चित्तौड़ की राजधानी अघाट ( अहड़ ) नगर में बत्तीस दिगम्बर-वादियों के साथ वाद किया था और उसमें वे हीरे के समान अभेद्य रहे थे / इस कारण चित्तौड़नरेश की ओर से उनको 'हीरला' की पदवी / मिली थी। उनकी कठिन तपस्या, शुद्ध बुद्धि और निरवद्य चारित्र के लिए यही प्रमाण बस है कि उनके स्थापित किये हुए तपागच्छ के पाट पर आज तक 2 ऐसे विद्वान् , क्रियातत्पर और शासन प्रभावक आचार्य बराबर होते आए हैं कि जिनके सामने बादशाहों ने, हिन्दू नरपतियों ने और बड़े-बड़े विद्वानों ने सिर झुकाया है। 5) पारवार--श्री देवेन्द्रसूरि का परिवार कितना बड़ा था इसका स्पष्ट खुलासा तो कहीं देखने में नहीं आया, पर इतना लिखा मिलता है कि अनेक संचिन मुनि, उनके आश्रित थे / गुर्वावली में उनके दो शिष्य---श्री विद्यानन्द और श्री धर्मकीर्ति का उल्लेख है। ये दोनों भाई थे / 'विद्यानन्द' नाम, सूरिपद के पीछे का है। इन्होंने 'विद्यानन्द' नाम का व्याकरण बनाया है। धर्मकीर्ति उपाध्याय, जो सूरिपद लेने के बाद 'धर्मघोष' नाम से प्रसिद्ध हुए, उन्होंने भी कुछ ग्रंथ रचे हैं / ये दोनों शिष्य, अन्य शास्त्रों के अतिरिक्त जैन-शास्त्र के अच्छे विद्वान् थे / इसका प्रमाण, उनके गुरु श्री देवेन्द्रसूरि की कमग्रन्थ की वृत्ति के अन्तिम पद्य से मिलता है। उन्होंने लिखा है कि 'मेरी बनाई हई इस टीका को श्री विद्यानन्द और श्री धर्मकीर्ति, दोनों विद्वानों ने शोधा है।' इन दोनों का विस्तृत वृत्तान्त जैनतत्त्वादर्श के बारहवें परिच्छेद में दिया है / (6) ग्रन्थ-श्री देवेन्द्रसूरि के कुछ ग्रंथ जिनका हाल मालूम हुआ है उनके नाम नीचे लिखे जाते हैं 1 श्राद्ध दिनकृत्य सूत्रवृत्ति, 2 सटीक पाँच नवीन कर्मग्रंथ, 3 सिद्धपंचाशिका सूत्रवृत्ति, 4 धर्मरत्नवृत्ति, 5 सुदर्शन चरित्र, 6 चैत्यवंदनादि भाष्यत्रय, 7 यंदारुवृत्ति, 8 सिरिउसवद्धमाण प्रमुख स्तवन, 6 सिद्धदण्डिका, 10 सारवृत्तिदशा / इनमें से प्रायः बहुत से ग्रन्थ जैनधर्म प्रसारक सभा भावनगर, आत्मानन्द सभा भावनगर, देवचंद लालभाई पुस्तकोद्धार फण्ड सूरत की ओर से छप चुके हैं / ई० 1621] [कर्मविपाक की प्रस्तावना 1 यह सब जानने के लिए देखो गुर्वावली पद्य 88 से आगे। . - 2 यथा श्री हीरविजयसूरि, श्रीमद् न्यायविशारद महामहोपाध्याय यशोविजयगणि, श्रीमद् न्यायाम्भोनिधि विजयानन्दसूरि, आदि / 3 देखो, पद्य 153 में आगे /