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________________ २२२. जैन धर्म और दर्शन कर्मशास्त्र में शरीर, भाषा, इन्द्रिय आदि पर विचार शरीर, जिन तत्त्वों से बनता है वे तत्त्व, शरीर के सूक्ष्म स्थूल आदि प्रकार, उसकी रचना, उसका वृद्धि-क्रम, हास-क्रम आदि अनेक अंशों को लेकर शरीर का विचार, शरीर-शास्त्र में किया जाता है। इसी से उस शास्त्र का वास्तविक गौरव है। वह गौरव कर्मशास्त्र को भी प्राप्त है। क्योंकि उसमें भी प्रसंगवश ऐसी अनेक बातों का वर्णन किया गया है जो कि शरीर से संबन्ध रखती हैं। शरीर-संबन्धी ये बातें पुरातन पद्धति से कही हुई हैं सही, परन्तु इससे उनका महत्त्व कम नहीं। क्योंकि सभी वर्णन सदा नए नहीं रहते । आज जो विषय नया दिखाई देता है वही थोड़े दिनों के बाद पुराना हो जाएगा। वस्तुतः काल के बीतने से किसी में पुरानापन नहीं आता । पुरानापन आता है उसका विचार न करने से ; सामयिक पद्धति से विचार करने पर पुरातन शोधों में भी नवीनता सी श्रा जाती है। इसलिए अतिपुरातन कर्मशास्त्र में भी शरीर की बनावट, उसके प्रकार, उसकी मजबूती और उसके कारणभूत तत्वों पर जो कुछ थोड़े बहुत विचार पाए जाते है, वह उस शास्त्र की यथार्थ महत्ता का चिह्न है। इसी प्रकार कर्मशास्त्र में भाषा के संबन्ध में तथा इन्द्रियों के संबन्ध में भी मनोरंजक व विचारणीय चर्चा मिलती है । भाषा किस तत्व से बनती है ? उसके बनने में कितना समय लगता है ? उसकी रचना के लिए अपनी वीर्यशक्ति का प्रयोग यात्मा किस तरह और किस साधन के द्वारा करता है ? भाषा की सत्यता-असत्यता का आधार क्या है ? कौन-कौन प्राणी भाषा बोल सकते हैं ? किस-किस जाति के प्राणी में, किस-किस प्रकार की भाषा बोलने की शक्ति है ? इत्यादि अनेक प्रश्न, भाषा से संबन्ध रखते हैं। उनका महत्वपूर्ण व गम्भीर विचार, कर्म शास्त्र में विशद रीति से किया हुआ मिलता है। इसी प्रकार इन्द्रियां कितनी हैं ? कैसी हैं ? उनके कैसे-कैसे भेद तथा कैसीकैसी शक्तियाँ हैं ? किस-किस प्राणी को कितनी-कितनी इन्द्रियाँ प्राप्त हैं ? बाह्य और श्राभ्यन्तरिक इन्द्रियों का आपस में क्या संबन्ध है ? उनका कैसा कैसा आकार है ? इत्यादि अनेक प्रकार के इन्द्रियों से संबन्ध रखनेवाले विचार कर्मशास्त्र में पाये जाते हैं। यह ठीक है कि ये सब विचार उसमें संकलना-बद्ध नहीं मिलते. परन्तु ध्यान में रहे कि उस शास्त्र का मुख्य प्रतिपाद्य अंश और ही है। उसी के वर्णन में शरीर, भाषा, इन्द्रिय अादि का विचार प्रसंगवश करना पड़ता है । इसलिए जैसी संकलना चाहिए वैसी न भी हो, तथापि इससे कर्मशास्त्र की कुछ त्रुटि सिद्ध नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229065
Book TitleKarmvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherZ_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf
Publication Year1957
Total Pages33
LanguageHindi
ClassificationArticle & Karma
File Size137 KB
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