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________________ कर्मशास्त्र २२३ होती; बल्कि उसको तो अनेक शास्त्रों के विषयों की चर्चा करने का गौरव ही प्राप्त है। कर्मशास्त्र अध्यात्मशास्त्र है अध्यात्म-शास्त्र का उद्देश्य, आत्मा-सम्बन्धी विषयों पर विचार करना है। अतएव उसको आत्मा के पारमार्थिक स्वरूप का निरूपण करने के पहले उसके व्यावहारिक स्वरूप का भी कथन करना पड़ता है। ऐसा न करने से यह प्रश्न सहज ही में उठता है कि मनुष्य, पशु-पक्षी, सुखी-दुःखी आदि अात्मा की दृश्यमान अवस्थाओं का स्वरूप, ठीक-ठीक जाने बिना उसके पार का स्वरूप जानने की योग्यता, दृष्टि को कैसे प्राप्त हो सकती है ? इसके सिवाय यह भी प्रश्न होता है कि दृश्यमान वर्तमान अवस्थाएँ ही आत्मा का स्वभाव क्यों नहीं है ? इसलिए अध्यात्म-शास्त्र को आवश्यक है कि वह पहले, आत्मा के दृश्यमान स्वरूप की उपपत्ति दिखाकर आगे बढ़े। यही काम कर्मशास्त्र ने किया है। वह दृश्यमान सब अवस्थात्रों को कर्म-जन्य बतला कर उनसे आत्मा के स्वभाव की जुदाई की सूचना करता है। इस दृष्टि से कर्मशात्र, अध्यात्म-शास्त्र का ही एक अंश है। यदि अध्यात्म-शास्त्र का उद्देश्य, आत्मा के शुद्ध स्वरूप का वर्णन करना ही माना जाए तब भी कर्मशास्त्र को उसका प्रथम सोपान मानना ही पड़ता है। इसका कारण यह है कि जब तक अनुभव में आनेवाली वर्तमान अवस्थाओं के साथ श्रात्मा के संबन्ध का सच्चा खुलासा न हो तब तक दृष्टि, आगे कैसे बढ़ सकती है ! जब यह ज्ञात हो जाता है कि ऊपर के सब रूप, मायिक या वैभाविक हैं तब स्वयमेव जिज्ञाता होती है कि आत्मा का सच्चा स्वरूप क्या है ? उसी समय आत्मा के केवल शुद्ध स्वरूप का प्रतिपादन सार्थक होता है। परमात्मा के साथ आत्मा का संबन्ध दिखाना यह भी अध्यात्मशास्त्र का विषय है। इस संबन्ध में उपनिषदों में या गीता में जैसे विचार पाये जाते हैं वैसे ही कर्मशास्त्र में भी। कर्मशास्त्र कहता है कि आत्मा वही परमात्मा–जीव ही ईश्वर है । आत्मा का परमात्मा में मिल जाना, इसका मतलब यह है कि आत्मा का अपने कर्मावृत परमात्मभाव को व्यक्त करके परमात्मरूप हो जाना। जीव परमात्मा का अंश है इसका मतलब कर्मशास्त्र की दृष्टि से यह है कि जीव में जितनी ज्ञान-कला व्यक्त है, वह परिपूर्ण. परन्तु अन्यक्त ( श्रावृत ) चेतना-चन्द्रिका का एक अंश मात्र है। कर्म का आवरण हट जाने से चेतना परिपूर्ण रूप में प्रकट होती है। उसी को ईश्वरभाव या ईश्वरत्व की प्राप्ति समझना चाहिए। धन, शरीर आदि बाह्य विभूतियों में आत्म-बुद्धि करना, अर्थात् जड़ में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229065
Book TitleKarmvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherZ_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf
Publication Year1957
Total Pages33
LanguageHindi
ClassificationArticle & Karma
File Size137 KB
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