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________________ कर्मवाद २२७ लेप से अपने को मुक्त नहीं कर सकते । अतएव विचारना चाहिए कि सच्ची निर्लेपता क्या है ? लेप ( बन्ध ), मानसिक क्षोभ को अर्थात् कषाय को कहते हैं । यदि कषाय नहीं है तो ऊपर की कोई भी क्रिया आत्मा को बन्धन में रखने के लिए समर्थ नहीं है । इससे उलटा यदि कषाय का वेग भीतर वर्तमान है तो ऊपर से हज़ार यत्न करने पर भी कोई अपने को बन्धन से छुड़ा नहीं सकता । कषाय-रहित वीतराग सब जगह जल में कमल की तरह निर्लेप रहते हैं पर कषायवान् आत्मा योग का स्वाँग रचकर भी तिल भर शुद्धि नहीं कर सकता । इससे यह कहा जाता है कि श्रासक्ति छोड़कर जो काम किया जाता है वह बन्धक नहीं होता । मतलब सच्ची निर्लेपता मानसिक क्षोभ के त्याग में है । यही शिक्षा कर्म-शास्त्र से मिलती है और यही बात अन्यत्र भी कही हुई है :'मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः | बन्धाय विषया. ऽसंगि मोक्षे निर्विषयं स्मृतम् ॥' -- - मैत्र्युपनिषद् ६ - कर्म का अनादित्व विचारवान् मनुष्य के दिल में प्रश्न होता है कि कर्म सादि है या अनादि ? 'इसके उत्तर में जैन दर्शन का कहना है कि कर्म, व्यक्ति की अपेक्षा से सादि और प्रवाह की अपेक्षा से अनादि है । यह सबका अनुभव है कि प्राणी सोतेजागते, उठते-बैठते, चलते-फिरते किसी न किसी तरह की हलचल किया ही करता है । हलचल का होना ही कर्म-बन्ध की जड़ है। इससे यह सिद्ध हैं कि कर्म, व्यक्तिशः श्रादि वाले ही हैं । किन्तु कर्म का प्रवाह कब से चला ? इसे कोई बतला नहीं सकता । भविष्यत् के समान भूतकाल की गहराई अनन्त है | अनन्त का वर्णन नादिया अनन्त शब्द के सिवाय और किसी तरह से होना सम्भव है । इसलिए कर्म के प्रवाह को अनादि कहे बिना दूसरी गति ही नहीं है । कुछ लोग अनादित्व की स्पष्ट व्याख्या की उलझन से घबड़ा कर कर्म प्रवाह को सादि बतलाने लग जाते हैं, पर वे अपनी बुद्धि की अस्थिरता से कल्पित दोष की आशंका करके, उसे दूर करने के प्रयत्न में एक बड़े दोष का स्वीकार कर लेते हैं। वह यह कि कर्म प्रवाह यदि आदिमान है तो जीव पहले ही अत्यन्त शुद्धबुद्ध होना चाहिए, फिर उसे लिप्स होने का क्या कारण ? और यदि सर्वथा शुद्धबुद्ध जीव भी लिस हो जाता है तो मुक्त हुए जीव भी कर्म-लित होंगे; ऐसी दशा में मुक्ति को सोया हुआ संसार ही कहना चाहिए | कर्म प्रवाह के अनादित्व को और मुक्त जीव के फिर से संसार में न लौटने को सच प्रतिष्ठित दर्शन मानते हैं; जैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229065
Book TitleKarmvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherZ_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf
Publication Year1957
Total Pages33
LanguageHindi
ClassificationArticle & Karma
File Size137 KB
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