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________________ कर्मवाद . २३७ और इनके द्वारा संसारी आत्मा की अनुभवसिद्ध भिन्न-भिन्न अवस्थाओं का जैसा खुलासा किया गया है वैसा किसी भी जैनेतर दर्शन में नहीं है । पातजलदर्शन में कर्म के जाति, आयु और भोग तीन तरह के विपाक बतलाए हैं, परन्तु जैन दर्शन में कर्म के संबन्ध में किये गये विचार के सामने वह वर्णन नाम मात्र का है। श्रात्मा के साथ कम का बन्ध कैसे होता है ? किन-किन कारण से होता है ? किस कारण से कम में कैसी शक्ति पैदा होती है ? कम', अधिक से अधिक और कम से कम कितने समय तक आत्मा के साथ लगा रह सकता है ? श्रात्मा के साथ लगा हुआ भी कम, कितने समय तक विपाक देने में असमर्थ है ? विपाक का नियत समय भी बदला जा सकता है या नहीं ? यदि बदला जा सकता है तो उसके लिए कैसे आत्मपरिणाम आवश्यक हैं ? एक कर्म, अन्य कर्मरूप कत्र बन सकता है ? उसकी बन्धकालीन तीव्रमन्द शक्तियाँ किस प्रकार बदली जा सकती हैं ? पीछे से विपाक देनेवाला कर्म पहले ही कब और किस तरह भोगा जा सकता है ? कितना भी बलवान् कम क्यों न हो, पर उसका विपाक शुद्ध आत्मिक परिणामों से कैसे रोक दिया जाता है ? कभी-कभी आत्मा के शतशः प्रयत्न करने पर भी कम, अपना विपाक बिना भोगवाए नहीं छूटता ? आत्मा किस तरह कर्म का कर्ता और किस तरह भोक्ता है ? इतना होने पर भी वस्तुतः आत्मा में कम का कर्तृव्य और भोक्तृत्व किस प्रकार नहीं है ? संक्लेशरूप परिणाम अपनी आकर्षण शक्ति से आत्मा पर एक प्रकार की सूक्ष्म रज का पटल किस तरह डाल देते हैं ? अात्मा वीर्य-शक्ति के आविर्भाव के द्वारा इस सूक्ष्म रज के पटल को किस तरह उठा फेंक देता है ? स्वभावतः शुद्ध प्रात्मा भी कर्म के प्रभाव से किस-किस प्रकार मलीन सा दीखता है ? और बाह्य हजारों श्रावरणों के होने पर भी प्रात्मा अपने शुद्ध स्वरूप से च्युत किस तरह नहीं होता है ? वह अपनी उत्क्रान्ति के समय पूर्व बद्ध तीव्र कर्मों को भी किस तरह हटा देता है ? वह अपने वर्तमान परमात्मभाव को देखने के लिए जिस समय उत्सुक होता है उस समय उसके, और अन्तरायभूत कर्म के बीच कैसा द्वन्द्व (युद्ध) होता है ? अन्त में वीर्यवान् श्रात्मा किस प्रकार के परिणामों से बलवान् कर्मों को कमजोर करके अपने प्रगति-मार्ग को निष्कएटक करता है ? आत्म-मन्दिर में वर्तमान परमात्मदेव का साक्षात्कार कराने में सहायक परिणाम, जिन्हें 'अपूर्वकरण' तथा 'अनिवृत्तिकरण' कहते हैं. उनका क्या स्वरूप है ? जीव अपनी शुद्ध परिणाम-तरंगमाला के वैद्युतिक यन्त्र से कर्म के पहाड़ों को किस कदर चूर-चूर कर डालता है ? कभी-कभी गुलाट खाकर कम हो, जो कुछ देर के लिए दबे होते हैं, वे ही प्रगतिशील प्रात्म. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229065
Book TitleKarmvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherZ_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf
Publication Year1957
Total Pages33
LanguageHindi
ClassificationArticle & Karma
File Size137 KB
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