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कर्मग्रन्थों के कर्त्ता
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उससे पुरातन ग्रन्थ का संक्षेप ही है, यह बात उसकी आदि में वर्तमान 'वोच्छं कम्मविवागं गुरुवइट्ठ समासेण' इस वाक्य से स्पष्ट है ।
भाषा - यह कर्मग्रन्थ तथा इसके आगे के अन्य सभी कर्मग्रन्थों का मूल प्राकृत भाषा में हैं। इनकी टीका संस्कृत में है। मूल गाथाएँ ऐसी सुगम भाषा में रची हुई हैं कि पढ़ने वालों को थोड़ा बहुत संस्कृत का बोध हो और उन्हें कुछ प्राकृत के नियम समझा दिये जाएँ तो वे मूल गाथाओं के ऊपर से ही विषय का परिज्ञान कर सकते हैं । संस्कृत टीका भी बड़ी विशद भाषा में खुलासे के साथ लिखी गई है जिससे जिज्ञासुत्रों को पढ़ने में बहुत सुगमता होती है ।
ग्रन्थकार की जीवनी
( १ ) समय- प्रस्तुत ग्रन्थ के कर्ता श्री देवेन्द्रसूरि का समय विक्रम की १३ वीं शताब्दी का अन्त और चौदहवीं शताब्दी का आरम्भ है। उनका स्वर्गवास वि० सं० १३३७ में हुआ ऐसा उल्लेख गुर्वावली में स्पष्ट है परन्तु उनके जन्म, दीक्षा, सूरिपद आदि के समय का उल्लेख कहीं नहीं मिलता; तथापि यह जान पड़ता है कि १२८५ में श्री जगच्चन्द्रसूरि ने तपागच्छ की स्थापना की, तत्र वे दीक्षित होंगे। क्योंकि गच्छस्थापना के बाद श्रीजगचन्द्रसूरि के द्वारा ही श्रीदेवेन्द्रसूर और श्री विजयचन्द्रसूरि को सूरिपद दिए जाने का वर्णन गुर्वावली में है । यह तो मानना ही पड़ता है कि सूरिपद ग्रहण करने के समय, श्री देवेन्द्रसूरि वय, विद्या और संयम से स्थविर होंगे । अन्यथा इतने गुरुतर पद का और खास करके नवीन प्रतिष्ठित किये गए तपागच्छ के नायकत्व का भार वे कैसे सम्हाल सकते ?
उनका सूरिपद वि० सं० १२८५ के बाद हुआ । सूरिपद का समय अनुमान वि० सं० १३०० मान लिया जाए, तब भी यह कहा जा सकता है कि तपागच्छ की स्थापना के समय वे नवदीक्षित होंगे। उनकी कुल उम्र ५० या ५२ वर्ष की मान ली जाए तो यह सिद्ध है कि वि० सं० १२७५ के लगभग उनका जन्म हुआ होगा । वि० सं० १३०२ में उन्होंने उज्जयिनी में श्रेष्ठिवर जिनचन्द्र के पुत्र वीरवल को दीक्षा दी, जो ग्रागे विद्यानन्दसूरि के नाम से विख्यात हुए । उस समय देवेन्द्रसूरि की उम्र २५-२७ वर्ष की मान ली जाए तब भी उक्त अनुमान की - १२७५ के लगभग जन्म होने की पुष्टि होती है । अस्तु जन्म का, दीक्षा का तथा सूरिपद का समय निश्चित न होने पर भी इस बात में कोई संदेह नहीं
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१ देखो श्लोक १७४ | २ देखो श्लोक १०७ ।
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