Book Title: Karmvada
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 24
________________ कर्मवाद २३५ कई नाटक लिखे थे । उसकी माता के कथनानुसार वह पाँच वर्ष की वय में कई छोटी-मोटी कविताएँ बना लेती थी। उसकी लिखी हुई कुछ कविताएँ महारानी विक्टोरिया के पास थीं। उस समय उस बालिका का अंग्रेजी ज्ञान भी आश्चर्यजनक था, वह कहती थी कि मैं अंग्रेजी पढ़ी नहीं हूँ, परन्तु उसे जानती हूँ । उक्त उदाहरणों पर ध्यान देने से यह स्पष्ट जान पड़ता है कि इस जन्म में देखी जानेवाली सब विलक्षणताएँ न तो वर्तमान जन्म की कृति का ही परिग्राम है, न माता-पिता के केवल संस्कार का ही, और न केवल परिस्थिति का ही । इसलिए आत्मा के अस्तित्व की मर्यादा को गर्भ के आरंभ समय से और भी पूर्व मानना चाहिए। वही पूर्व जन्म है। पूर्व जन्म में इच्छा या प्रवृत्ति द्वारा जो संस्कार संचित हुए हों उन्हीं के आधार पर उपर्युक्त शङ्काओं तथा विलक्षणताओं का सुसंगत समाधान हो जाता है। जिस युक्ति से एक पूर्व जन्म सिद्ध हुआ उसी के बल पर से अनेक पूर्व जन्म की परंपरा सिद्ध हो जाती है । क्योंकि अपरिमित ज्ञानशक्ति एक जन्म के अभ्यास का फल नहीं हो सकता। इस प्रकार आत्मा, देह से जुदा अनादि सिद्ध होता है । अनादि तत्व का कभी नाश नहीं होता इस सिद्धान्त को सभी दार्शनिक मानते हैं। गीता में भी कहा गया है'नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।" - श्र० २ श्लो० १६ इतना ही नहीं, बल्कि वर्तमान शरीर के बाद श्रात्मा का अस्तित्व माने बिना अनेक प्रश्न हल ही नहीं हो सकते । तो प्रामाणिक जीवन बिताते बहुत लोग ऐसे देखे जाते हैं कि वे इस जन्म में हैं परन्तु रहते हैं दरिद्री और ऐसे भी देखे जाते हैं कि जो न्याय, नीति और धर्म का नाम सुनकर चिढ़ते हैं परन्तु होते हैं वे सब तरह से सुखी । ऐसी अनेक व्यक्तियाँ मिल सकती हैं जो हैं तो स्वयं दोषी और उनके दोषों का अपराधों का — फल भोग रहे हैं दूसरे एक हत्या करता है और दूसरा पकड़ा जाकर फांसी पर लटकाया जाता है। एक करता है चोरी और पकड़ा जाता है दूसरा । अब इस पर विचार करना चाहिए कि जिनको अपनी अच्छी या बुरी कृति का बदला इस जन्म में नहीं मिला, उनकी कृति क्या यों ही विफल हो जाएगी ! यह कहना कि कृति विफल नहीं होती, यदि कर्ता को फल नहीं मिला तो भी उसका : सर समाज के या देश के अन्य लोगों पर होता ही है- सो भी ठीक नहीं । क्योंकि मनुष्य जो कुछ करता है वह सत्र दूसरों के लिए ही नहीं । रात-दिन परोपकार करने में निरत महात्माओं की भी इच्छा, दूसरों की भलाई करने के निमित्त से अपना परमात्मत्व प्रकट करने की ही रहती है। विश्व की व्यवस्था में इच्छा क Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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