Book Title: Karmvada
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 19
________________ २३० जैन धर्म और दर्शन होती कि 'मैं नहीं हूँ। इससे उलटा यह भी निश्चय होता है कि 'मैं नहीं हूँ'.यह बात नहीं । इसी बात को श्री शंकराचार्य ने भी कहा है 'सर्वो ह्यात्माऽस्तित्वं प्रत्येति, न नाहमस्मीति-ब्रह्म भाष्य १-१-१ ।' इसी निश्चय को ही स्वसंवेदन ( आत्मनिश्चय ) कहते हैं। (ख) बाधक प्रमाण का अभाव-ऐसा कोई प्रमाण नहीं है जो आत्मा के अस्तित्व का बाध ( निषेध ) करता हो। इस पर यद्यपि यह शंका हो सकती है कि मन और इन्द्रियों के द्वारा आत्मा का ग्रहण न होना ही उसका बाध है। परन्तु इसका समाधान सहज है । किसी विषय का बाधक प्रमाण वही माना जाता है जो उस विषय को जानने की शक्ति रखता हो और अन्य सब सामग्री मौजूद होने पर उसे ग्रहण कर न सके। उदाहरणार्थ-आँख, मिट्टी के घड़े को देख सकती है पर जिस समय प्रकाश, समीपता श्रादि सामग्री रहने पर भी वह मिट्टी के घड़े को न देखे, उस समय उसे उस विषय की बाधक समझना चाहिए। इन्द्रियाँ सभी भौतिक हैं । उनकी ग्रहणशक्ति बहूत परिमित है । वे भौतिक पदार्थों में से भी स्थूल, निकटवर्ती और नियत विषयों को ही ऊपर-ऊपर से जान सकती हैं । सूक्ष्म-दर्शक यन्त्र श्रादि साधनों की वही दशा है। वे अभी तक भौतिक प्रदेश में ही कार्यकारी सिद्ध हुए हैं । इसलिए उनका अभौतिक-अमूर्तअात्मा को जान न सकना बाध नहीं कहा जा सकता। मन, भौतिक होने पर भी इन्द्रियों का दास बन जाता है--- एक के पीछे एक, इस तरह अनेक विषयों में बन्दरों के समान दौड़ लगाता फिरता है----तब उसमें राजस व तामस वृत्तियों पैदा होती हैं । सात्त्विक भाव प्रकट होने नहीं पाता। यही बात गीता ( अ-२ श्लो० ६७) में भी कही हुई है 'इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते । तदस्य हरति प्रज्ञां वायु वमिवाम्भसि ॥ इसलिए चंचल मन में आत्मा की स्फुरणा भी नहीं होती। यह देखी हुई बात है कि प्रतिबिम्ब ग्रहण करने की शक्ति, जिस दर्पण में वर्तमान है वह भी जब मलिन हो जाता है तब उसमें किसी वस्तु का प्रतिबिम्ब व्यक्त नहीं होता । इससे यह बात सिद्ध है कि बाहरी विषयों में दौड़ लगाने वाले अस्थिर मन से आत्मा का ग्रहण न होना उसका बाध नहीं, किन्तु मन की अशक्ति मात्र है। इस प्रकार विचार करने से यह प्रमाणित होता है कि मन, इन्द्रियाँ, सूक्ष्म दर्शकयन्त्र आदि सभी साधन भौतिक होने से आत्मा का निषेध करने की शक्ति नहीं रखते । (ग) निषेध से निषेध-कर्ता की सिद्धि- कुछ लोग यह कहते हैं कि हमें आत्मा का निश्चय नहीं होता, बल्कि कभी-कभी उसके अभाव की स्फुरणा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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