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कर्मवाद
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हो पाती है; क्योंकि किसी समय मन में ऐसी कल्पना होने लगती है कि 'मैं नहीं हूँ' इत्यादि । परन्तु उनको जानना चाहिए कि उनकी यह कल्पना ही आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करती है । क्योंकि यदि आत्मा ही न हो तो ऐसी कल्पना का प्रादुर्भाव कैसे ? जो निषेध कर रहा है वह स्वयं ही अात्मा है । इस बात को श्रीशंकराचार्य ने अपने ब्रह्मसूत्र के भाष्य में भी कहा है'य एव ही निराकर्ता तदेव ही तस्य स्वरूपम् ।'
--अ. २ पा ३ अ. १ सू. ७ (ब) तक- यह भी आत्मा के स्वतंत्र अस्तित्व की पुष्टि करता है। वह कहता है कि जगत् में सभी पदार्थों का विरोधी कोई न कोई देखा जाता है। अन्धकार का विरोधी प्रकाश, उष्णता का विरोधी शैत्य और सुख का विरोधी दुःख । इसा तरह जड़ पदाथ का विरोधी भी कोई तत्त्व होना चाहिए।' जो तत्त्व जड़ का विरोधी है वहीं चेतन या आत्मा है।
इस पर यह तर्क किया जा सकता है कि 'जड़, चेतन ये दो स्वतंत्र विरोधी तत्त्व मानना उचित नहीं, परन्तु किसी एक ही प्रकार के मूल पदार्थ में जड़त्व व चेतनत्व दोनों शक्तियाँ मानना उचित है । जिस समय चेतनत्व शक्ति का विकास होने लगता है—उसकी व्यक्ति होती है-उस समय जड़त्व शक्ति का तिरोभाव रहता है। सभी चेतन शक्तिवाले प्राणी जड़ पदार्थ के विकास के ही परिणाम हैं। बे जड़ के अतिरिक्त अपना स्वतंत्र अस्तित्व नहीं रखते, किन्तु जड़त्व शक्ति का तिरोभाव होने से जीवधारी रूप में दिखाई देते हैं। ऐसा ही मन्तव्य हेगल
आदि अनेक पश्चिमीय विद्वानों का भी है। परन्तु उस प्रतिकूल तक का निवारण अशक्य नहीं है।
यह देखा जाता है कि किसी वस्तु में जब एक शक्ति का प्रादुर्भाव होता है तब उसमें दूसरी विरोधिनी शक्ति का तिरोभाव हो जाता है। परन्तु जो शक्ति तिरोहित हो जाती है वह सदा के लिए नहीं, किसी समय अनुकूल निमित्त मिलने
१ यह तर्क निर्मूल या अपमाण नहीं, बल्कि इस प्रकार का तर्क शुद्ध बुद्धि का चिह्न है । भगवान् बुद्ध को भी अपने पूर्व जन्म में अर्थात् सुमेध नामक ब्राह्मण के जन्म में ऐसा ही तर्क हुआ था । यथा___ यथा हि लोके दुक्खस्स पटिपक्वभूतं सुखं नाम अस्थि, एवं भवे सति तप्पटिपक्खेन विभवेनाऽपि भवितब्बं यथा च उरहे सति तस्स वूपसमभूतं सीतंऽपि अस्थि, एवं रागादीनं अग्गीनं वूपसमेन निबानेनाऽपि भवितब्ब।'
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