Book Title: Karmvada
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 7
________________ जैन धर्म और दर्शन (१) वैदिक धर्म की ईश्वर संबन्धिनी मान्यता में जितना अंश भ्रान्त था उसे दूर करना । (२) बौद्ध धर्म के एकान्त क्षणिकवाद को प्रयुक्त बतलाना । २१८ (३) श्रात्मा को जड़ तत्त्वों से भिन्न स्वतन्त्र तत्त्व स्थापित करना । इसके विशेष खुलासे के लिए यह जानना चाहिए कि आर्यावर्त में भगवान् महावीर के समय कौन-कौन धर्म थे और उनका मन्तव्य क्या था । २ १ - इतिहास बतलाता है कि उस समय भारतवर्ष में जैन के अतिरिक्त वैदिक और बौद्ध दो ही धर्म मुख्य थे; परन्तु दोनों के सिद्धान्त मुख्य-मुख्य विषयों. में बिलकुल जुदे थे । मूल' वेदों में, उपनिषदों में, स्मृतियों में और वेदानुयायी कतिपय दर्शनों में ईश्वर विषयक ऐसी कल्पना थी कि जिससे सर्व साधारण का यह विश्वास हो गया था कि जगत् का उत्पादक ईश्वर ही है; वही अच्छे या बुरे कर्मों का फल जीवों से भोगवाता है; कर्म, जड़ होने से ईश्वर की प्रेरणा के बिना अपना फल भोगवा नहीं सकते; चाहे कितनी ही उच्च कोटि का जीव हो, परन्तु वह अपना विकास करके ईश्वर हो नहीं सकता; अन्त को जीव, जीव ही है, ईश्वर नहीं और ईश्वर के अनुग्रह के सिवाय संसार से निस्तार भी नहीं हो सकता; इत्यादि । १ - सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथा पूर्वमकल्पयत् । दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्वः... ॥ --- ऋ० म० १० सू० १६ मं ३. । २ -- यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते । येन जातानि जीवन्ति । यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति तद्विजिज्ञासस्व । तद्ब्रह्मेति । ३ - श्रासीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम् । अप्रतर्क्यमविज्ञेयं प्रसुप्तमिव सर्व्वतः ॥ १५ ॥ ततस्स्वयंभूर्भगवानव्यक्तो व्यञ्जयन्निदम् । महाभूतादिवृत्तौजाः प्रादुरासीत्तमोनुदः ॥ १-६ ॥ सोऽभिध्याय शरीरात्स्वात् सिसृक्षुर्विविधाः प्रजाः । प एव ससर्जादौ तासु वीजमवासृजत् ॥ १-८ ॥ तदण्डमभवद्वैमं सहस्त्रांशुसमप्रभम् । तस्मिञ्जज्ञे स्वयं ब्रह्मा सर्व्वलोकपितामहः ॥ १-६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only - तैति० ३- १. । - मनुस्मृति । www.jainelibrary.org

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