Book Title: Karmvada Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf View full book textPage 4
________________ कर्मवाद २१५. प्रवृत्ति करता है तब यह तो असम्भव ही है कि उसे किसी न किसी विघ्न का सामना करना न पड़े। सब कामों में सबको थोड़े बहुत प्रमाण में शारीरिक या मानसिक विघ्न आते ही हैं । ऐसी दशा में देखा जाता है कि बहुत लोग चंचल हो जाते हैं | घनड़ा कर दूसरों को दूषित ठहरा उन्हें कोसते हैं । इस तरह विपत्ति के समय एक तरफ बाहरी दुश्मन बढ़ जाते हैं और दूसरी तरफ बुद्धि अस्थिर होने से अपनी भूल दिखाई नहीं देती | अन्त को मनुष्य व्यग्रता के कारण अपने प्रारम्भ किये हुए सब कामों को छोड़ बैठता है और प्रयत्न तथा शक्ति के साथ न्याय का भी गला घोंटता है । इसलिए उस समय उस मनुष्य के लिए. एक ऐसे गुरु को आवश्यकता है कि जो उसके बुद्धि नेत्र को स्थिर कर उसे देखने में मदद पहुँचाए कि उपस्थित विघ्न का असली करण क्या है ? जहाँ तक बुद्धिमानों ने विचार किया है यही पता चला है कि ऐसा गुरु, कर्म का सिद्धान्त ही है । मनुष्य को यह विश्वास करना चाहिए कि चाहे मैं जान सक् या नहीं, लेकिन मेरे विघ्न का भीतरी व असली कारण मुझ में ही होना चाहिए । जिस हृदय-भूमिका पर विघ्न-विष-वृक्ष उगता है उसका बीज भी उसी भूमिका में बोया हुआ होना चाहिए। पवन, पानी आदि बाहरी निमित्तों के • समान उस विघ्न विध-वृक्ष को अंकुरित होने में कदाचित् अन्य कोई व्यक्ति निमित्त हो सकता है, पर वह विघ्न का बीज नहीं—ऐसा विश्वास मनुष्य के बुद्धिनेत्र को स्थिर कर देता है जिससे वह अड़चन के असली कारण को अपने में देख, न तो उसके लिए दूसरे को कोसता है और न घबड़ाता है। ऐसे विश्वास से मनुष्य के हृदय में इतना बल प्रकट होता है कि जिससे साधारण संकट के समय विक्षित होनेवाला वह. बड़ी विपत्तियों को कुछ नहीं समझता और अपने व्यावहारिक या पारमार्थिक काम को पूरा ही कर डालता है। मनुष्य को किसी भी काम की सफलता के लिए परिपूर्ण हार्दिक शान्ति प्रास करनी चाहिए, जो एक मात्र कर्म के सिद्धान्त ही से हो सकती है। आँधी और तूफान में जैसे हिमालय का शिखर स्थिर रहता है वैसे ही अनेक प्रतिकलताओं के समय शान्त भाव में स्थिर रहना. यही सच्चा मनुष्यत्व है जो कि भूतकाल के अनुभवों से शिक्षा देकर मनुष्य को अपनी भावी भलाई के लिए तैयार करता है। परन्तु यह निश्चित है कि ऐसा मनुष्यत्व, कर्म के सिद्धान्त पर विश्वास किये बिना कभी या नहीं सकता। इससे यही कहना पड़ता है कि क्या व्यवहारक्या परमार्थ सब जगह कर्म का सिद्धान्त एक-सा उपयोगी है। कर्म के सिद्धान्त की श्रेष्ठता के संबन्ध में डा० मेक्समूलर का जो विचार है वह जानने योग्य है। वे कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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