Book Title: Jogsaru Yogsar
Author(s): Yogindudev, 
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 4
________________ जोगसारु ( योगसार ) इस ‘योगसार' में कुल १०८ दोहे (या दूहे) हैं, जिनमें ३ सोरठे (सोरठी दूहा) और १ चौपाई (चउपदी दूहा) भी सम्मिलित हैं। सभी एक से बढ़कर एक हैं, रत्न हैं। मैं इन्हें स्थूलतया मिश्री के टुकड़ों की उपमा देता हूँ। जिसप्रकार कोई रसिक पुरुष मिश्री के टुकड़ों को एक-एक करके मुँह में रखकर उन्हें खूब चूसता है और अत्यन्त हर्ष का अनुभव करता है, उसीप्रकार तत्त्वरसिक योगरसिक जीव इन दोहों को अपने उपयोग में जमाकर बारम्बार गुनगुनाता है और उनके अभिप्राय के तल तक पहुँचता हुआ अतीन्द्रिय आनन्द का अनुभव करता है। तो फिर समझ लीजिए ये १०८ मिश्री के टुकड़े हैं जो आपको मुनिराज योगीन्दुदेव ने भेंट किये हैं। आप इन्हें खूब चूसिए, आराम से चूसिए, पूरी शान्ति से चूसिए, एकान्त चूसिए। किसी हड़बड़ी में इन्हें फोड़कर खा जाने की जल्दबाजी मत कीजिए। इनका पूरा-पूरा स्वाद लीजिए, सम्पूर्ण मनोयोग से इनका रस पीजिए। आपका अवश्य मंगल होगा। हो सके तो इस सन्दर्भ में बैरिस्टर चम्पतराय जैन का यह सुन्दर वाक्य भी हमेशा ध्यान में रखिए जो उन्होंने अपनी महत्त्वपूर्ण पुस्तक 'Key of Knowledge' में लिखा - Knowledge is like food it becomes ours only when it is absorbed assimilated and digested by the intellect अर्थात् ज्ञान भोजन के समान है। वह तभी हमारा हो पाता है जब हम उसे भलीभाँति पचा पाते हैं। प्रस्तुत संस्करण मैंने श्री दिगम्बर जैन पार्श्वनाथ मन्दिर, ग्रीनपार्क, नई दिल्ली की दैनिक शास्त्रसभा में 'योगसार' का स्वाध्याय करते समय तैयार किया था, जिसमें सर्वप्रथम मात्र मूलग्रन्थ के दूहों को सम्पादित करके उनका सरल-सुबोध हिन्दी अर्थ ही लिखा गया था, परन्तु शनैः शनैः बहुत परिमार्जन हो गया और सभी की भावना सर्वजनलाभाय इसके प्रकाशन की हो गई। इसके बाद स्वाध्याय सम्पूर्ण होने पर मैंने ग्रन्थ में प्रतिपादित विषय को एक बार पुनः व्यवस्थित करते हुए दोहराने और स्थाई बनाने के लिए इसकी एक संक्षिप्त प्रश्नोत्तरी भी बनाई, जिससे सभी को बहुत लाभ हुआ; अतः प्रस्तुत संस्करण के परिशिष्ट में उसे भी मैं सभी लोगों के लाभार्थ दे रहा हूँ। इसके माध्यम से लोग 'योगसार' ग्रन्थ का परीक्षा-पद्धति से भी अध्ययन-अध्यापन कर सकते हैं। अपभ्रंश भाषा के ज्ञान से रहित सामान्य पाठकों के लाभार्थ ही प्रस्तुत संस्करण में डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल कृत हिन्दी पद्यानुवाद भी प्रत्येक दोहे के साथ दिया गया है, ताकि वे उसे कंठस्थ करके गुनगुनाते हुए हृदयंगम कर सकें। जोगसारु ( योगसार ) ग्रन्थ का कोई भी दोहा सहजता से खोजा जा सके इसलिए एक परिशिष्ट में 'दोहानुक्रमणिका' भी दी गई है। इसके अतिरिक्त प्रस्तुत संस्करण में मैंने कहीं-कहीं मूल पाठ के साथ उसके प्रमुख पाठान्तरों को भी पाद-1 द-टिप्पणी में देने की चेष्टा की है, परन्तु अपने सामान्य पाठकों को उसमें बहुत नहीं समझाया है, क्योंकि उनसे उनका चित्त इस ग्रन्थ के आध्यात्मिक विषय में एकाग्र नहीं हो पाता। फिर मैंने यह भी अनुभव किया कि उनमें से अधिकांश पाठभेद, अकार, उकार, ओकार मात्र के हैं जो इस ग्रन्थ की अत्यधिक लोकप्रियता एवं अपभ्रंश भाषा के लचीलेपन (flexibility) के कारण हो गये होंगे; अतः उनसे इन अध्यात्मप्रेमी सामान्य पाठकों को परिचित कराने की कोई विशेष आवश्यकता नहीं है। अंत में, हम सभी 'योगसार' का स्वाध्याय करके उत्तम योगी बनें इस पवित्र भावना के साथ मैं विराम लेता हूँ । - वीरसागर जैन - अध्यात्मकवि मुनिराज योगीन्दु आचार्य जोइन्दु (योगीन्दु) का अपभ्रंश भाषा पर अपूर्व अधिकार है। वे द्वितीय श्रुतस्कन्ध की परम्परा में शुद्ध अध्यात्म का उपदेश करनेवाले कुन्दकुन्दाचार्य के परवर्ती अध्यात्म कवि हैं। 'परमात्मप्रकाश' और 'योगसार' उनकी प्रसिद्ध रचनाएँ हैं। उनकी रचनाओं में आत्मानुभूति व्याप्त है। बहिरात्मा से परमात्मा होने की यात्रा का उसमें काव्यमय वर्णन है। उनकी रहस्यमयी रचनाओं का प्रभाव परवर्ती अपभ्रंश कवियों और हिन्दी के सन्त कवियों पर प्रचुरता से पड़ा है। विख्यात सन्त कवि कबीर के क्रान्तिकारी आध्यात्मिक विचारों पर जोइन्दु का प्रभाव सरलता से देखा जा सकता है। इनकी रचनाओं का विषय साम्प्रदायिक न होकर शुद्ध आध्यात्मिक है, इसलिए इसकी उपादेयता सर्वत्र है। जोइन्दु के आत्मा सम्बन्धी विचार सार्वकालिक और सार्वभौमिक हैं। भौतिकता से उत्पन्न संघर्षों से भरे-पूरे आज के मानवीय जीवन के लिए वे परम उपयोगी हैं। उनकी इस विशेषता के कारण ही उन्हें लोकदर्शी परम्परा का संदेशवाहक भी कहा जा सकता है।.... अपने विचारों को उन्होंने सरल कविता में प्रकट किया है। उनकी पुनरुक्तियाँ श्रोताओं और पाठकों के मानस पर उनके द्वारा अभिव्यक्त आध्यात्मिकता का अमिट प्रभाव बनाये रखने के उद्देश्य को लिये हुए हैं। उनके उपदेशों में उपनिषदों जैसा प्रवाह और सरसता है, परम मांगलिकता है। - प्रो. प्रवीणचन्द जैन 'जैनविद्या' का योगीन्दु विशेषांक, पृष्ठ-६

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