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जोगसारु ( योगसार )
( दूहा - ३९ )
केवल - णाण-सहाउ, सो अप्पा मुणि जीव तुहुँ । जड़ चाहहि सिव-लाहु, भणड़ जोइ जोइहिँ भणिउँ ।। ( हरिगीत )
यदि चाहते हो मोक्षसुख तो योगियों का कथन यह । हे जीव ! केवलज्ञानमय निज आतमा को जान लो ।।
हे जीव ! यदि तू मोक्ष प्राप्त करना चाहता है तो केवलज्ञान-स्वभावी आत्मा को जान - ऐसा योगियों ने कहा है।
( चौपाई - ४० )
को सुसमाहि करउ को अंचउ, छोपु- अछोपु करिवि को वंचउ । हल सहि कलहु केण समाणउ, जहिँ कहिँ जोवउ तहिँ अप्पाणउ ।। ( हरिगीत )
सुसमाधि अर्चन मित्रता अर कलह एवं वंचना । हम करें किसके साथ किसकी हैं सभी जब आतमा ।। अहो ! कौन समाधि करे? कौन पूजन करे ? कौन छूआछूत करके अपने आप को ठगे ? कौन किससे मैत्री करे? कौन किससे कलह करे ? जहाँ देखो, वहाँ आत्मा ही है।
( दूहा - ४१ )
ताम कुतित्थइँ परिभमइ, धुत्तिम ताम करेड़ । गुरुहु पसाएँ जाम णवि, अप्पा - देउ मुणेइ || ( हरिगीत )
गुरुकृपा से जबतक कि आतमदेव को नहिं जानता । तबतक भ्रमे कुत्तीर्थ में अर ना तजे जन धूर्तता ।। यह जीव तभी तक कुतीर्थों में भ्रमण करता है, धूर्तता करता है, जब तक कि गुरु के प्रसाद से अपने आत्मदेव को नहीं जानता है।
विशेष :- यहाँ 'कुतीर्थ' शब्द के दो अर्थ हो सकते हैं - १. मिथ्यातीर्थ, और २. कु = पृथ्वी अर्थात् दुनियाभर के सब तीर्थ ।
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जोगसारु ( योगसार )
( दूहा - ४२ ) तित्थइँ देवलि देउ णवि, इम सुइकेवलि - वुत्तु । देहा- देवलि देउ जिणु, एहउ जाणि णिरुत्तु ।। ( हरिगीत )
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श्रुतकेवली ने यह कहा ना देव मन्दिर तीर्थ में । बस देह देवल में रहे जिनदेव निश्चय जानिये ।। श्रुतकेवलियों ने कहा है कि देव तीर्थों और मन्दिरों में नहीं है, अपितु देव तो देहरूपी देवालय में ही रहता है - ऐसा निःसन्देह जानो ।
( दूहा - ४३ )
देहा- देवलि देउ जिणु, जणु देवलिहिँ णिएइ ।
हासउ महु पडिहाइ इहु, सिद्धे भिक्ख भमेइ । ( हरिगीत )
जिनदेव तनमन्दिर रहें जन मन्दिरों में खोजते । हँसी आती है कि मानो सिद्ध भोजन खोजते ।। अहो ! जिनदेव तो इस देहरूपी देवालय में रहते हैं, परन्तु लोग उसे मन्दिरों में देखते हैं, खोजते हैं। मुझे यह देखकर बड़ी हँसी आती है कि ये सिद्ध होकर भी भिक्षा-हेतु भ्रमण करते हैं।
( दूहा - ४४ )
मूढा देवलि देउ णवि, णवि सिलि लिप्पड़ चित्ति । देहा- देवलि देउ जिणु, सो बुज्झहि समचित्ति ।। ( हरिगीत )
देव देवल में नहीं रे मूढ ! ना चित्राम में । वे देह - देवल में रहें सम चित्त से यह जान ले ।।
हे मूढ़ ! देव मन्दिर में नहीं है। किसी मूर्ति, लेप या चित्र में भी
देव नहीं है। देव तो इस देहरूपी देवालय में है। उसे तू समभाव से
जान।