Book Title: Jogsaru Yogsar
Author(s): Yogindudev, 
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 19
________________ जोगसारु (योगसार) जोगसारु (योगसार) (दूहा-८१) अप्पा दंसणु णाणु मुणि, अप्पा चरणु वियाणि । अप्पा संजमु सील तउ, अप्पा पच्चक्खाणि।। (हरिगीत) निज आतमा है ज्ञान दर्शन चरण भी निज आतमा। तप शील प्रत्याख्यान संयम भी कहे निज आतमा ।। आत्मा ही दर्शन है, आत्मा ही ज्ञान है, आत्मा ही चारित्र है, आत्मा ही संयम है, आत्मा ही शील है, आत्मा ही तप है और आत्मा ही प्रत्याख्यान भी है। इसे अच्छी तरह जानो। (दूहा-८२) जो परियाणइ अप्प परु, सो परु चयइ णिभंतु । सो सण्णासु मुणेहि तहुँ, केवल-णाणिं उत्तु ।। (हरिगीत ) जो जान लेता स्व-पर को निर्धान्त हो वह पर तजे। जिन-केवली ने यह कहा कि बस यही संन्यास है।। जो जीव स्व और पर को अच्छी तरह जान लेता है, वह निःसन्देह पर का त्याग कर देता है । बस इसे ही संन्यास समझो - ऐसा केवलज्ञानियों ने कहा है। (दूहा-८३) रयणत्तय-संजुत्त जिउ, उत्तिमु तित्थु पवित्तु । मोक्खहँ कारण जोइया, अण्णु ण तंतु ण मंतु ।।" (हरिगीत ) रतनत्रय से युक्त जो वह आतमा ही तीर्थ है। है मोक्ष का कारण वही ना मंत्र है ना तंत्र है।। हे योगी ! रत्नत्रय से संयुक्त जीव ही उत्तम पवित्र तीर्थ है और वही मोक्ष का कारण है। अन्य कोई मंत्र-तंत्र आदि मोक्ष का कारण नहीं है। * किसी-किसी प्रति में इन दोनों दोहों में क्रमविपर्यय पाया जाता है अर्थात् ८३ के स्थान पर ८४वा और ८४ के स्थान पर ८३वाँ दोहा पाया जाता है। (दूहा-८४) दंसणु जं पिच्छियइ बुह, अप्पा विमल महंतु । पुणु पुणु अप्पा भावियए, सो चारित्त पवित्तु ।।" (हरिगीत ) निज देखना दर्शन तथा निज जानना ही ज्ञान है। जो हो सतत वह आतमा की भावना चारित्र है।। जो निर्मल आत्मा को देखा जाता है वही दर्शन है, जो निर्मल आत्मा को जाना जाता है वही श्रेष्ठ ज्ञान है और जो निर्मल आत्मा की पुनः पुनः भावना की जाती है वही पवित्र चारित्र है। (दूहा-८५) जहिँ अप्पा तहिँ सयल-गुण, केवलि एम भणंति । तिहिँ कारणएँ जोइ फुडु, अप्पा विमलु मुणंति ।। (हरिगीत) जिन-केवली ऐसा कहें - 'तहँ सकल गुण जहँ आतमा।' बस इसलिए ही योगीजन ध्याते सदा ही आतमा ।। जहाँ आत्मा है, वहीं सारे गुण हैं - ऐसा केवलज्ञानी कहते हैं। यही कारण है कि योगीजन सदा एक निर्मल आत्मा को ही जानते रहते हैं। (दूहा-८६) एक्कलउइंदिय-रहियउ, मण-वय-काय-ति-सुद्धि। अप्पा अप्पु मुणेहि तुहुँ, लहु पावहि सिव-सिद्धि ।। (हरिगीत) तू एकला इन्द्रिय रहित मन वचन तन से शुद्ध हो। निज आतमा को जान ले तो शीघ्र ही शिवसिद्ध हो।। हे भाई ! यदि तू आत्मा को बद्ध या मुक्त मानेगा तो निःसन्देह बँधेगा और यदि तू सहज-स्वरूप में रमण करेगा तो मोक्षरूप शान्त अवस्था को प्राप्त करेगा।

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