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जोगसारु (योगसार)
जोगसारु (योगसार) (दूहा-६३) जे परभाव चएवि मुणि, अप्पा अप्प मुणंति । केवल-णाण-सरुव लइ, ते संसारु मुचंति ।।
(हरिगीत) परभाव को परित्याग जो अपनत्व आतम में करें।
वे लहें केवलज्ञान अर संसार-सागर परिहरें ।। जो मुनि समस्त परभावों का त्याग करके आत्मा से आत्मा को पहिचानते हैं, वे केवलज्ञान पाकर संसार से मुक्त हो जाते हैं।
(दूहा-६४) धण्णा ते भयवंत बुह, जे परभाव चयंति । लोयालोय-पयासयरु, अप्पा विमल मुणंति ।।
(हरिगीत) हैं धन्य वे भगवन्त बुध परभाव जो परित्यागते ।
जो लोक और अलोक ज्ञायक आतमा को जानते ।। अहो ! धन्य हैं वे भगवन्त ज्ञानी पुरुष जो सर्व परभावों का त्याग कर देते हैं और लोकालोक-प्रकाशक निर्मल आत्मा की श्रद्धा करते हैं।
(दूहा-६५) सागारु वि णागारु कु वि, जो अप्पाणि वसेइ। सो लहु पावइ सिद्धि-सुहु, जिणवरु एम भणेइ ।।
(हरिगीत) सागार या अनगार हो पर आतमा में वास हो । जिनवर कहें अतिशीघ्र ही वह परमसुख को प्राप्त हो।। सागार (गृहस्थ) हो या अनगार (मुनि) - जो कोई भी आत्मा में निवास करता है, वही शीघ्र सिद्धि-सुख को प्राप्त करता है - ऐसा जिनवर कहते हैं।
(दूहा-६६) विरला जाणहिँ तत्तु बुह, विरला णिसुणहिँ तत्तु । विरला झायहिँ तत्तु जिय, विरला धारहिँ तत्तु ।।
(हरिगीत) विरले पुरुष ही जानते निज तत्त्व को विरले सुनें। विरले करें निज ध्यान अर विरले पुरुष धारण करें।।
अहो ! कोई विरला ज्ञानी ही तत्त्व को सुनता है, विरला ज्ञानी ही तत्त्व को जानता है, विरला ज्ञानी ही तत्त्व का ध्यान करता है और विरला ज्ञानी ही तत्त्व को अपने हृदय में धारण करता है।
(दूहा-६७) इहु परियण ण हु महुतणउ, इहु सुहु-दुक्खहँ हेउ । इम चिंतंतहँ किं करइ, लहु संसारहँ छेउ ।।
(हरिगीत) 'सुख-दुःख के हैं हेतु परिजन किन्तु वे परमार्थ से । मेरे नहीं' - यह सोचने से मुक्त हों भवभार से ।। जो जीव ऐसा चिन्तन करते हैं कि ये परिजन मेरे नहीं हैं, अपितु ये तो क्षणिक सुख-दुःख के हेतु हैं, वे शीघ्र ही संसार का अन्त कर देते हैं।
(दूहा-६८) इंद फणिंद णरिंद य वि, जीवहँ सरणु ण होति । असरणु जाणिवि मुणि-धवल, अप्पा अप्प मुणंति ।।
(हरिगीत ) नागेन्द्र इन्द्र नरेन्द्र भी ना आतमा को शरण दें।
यह जानकर हि मनीन्द्रजन निज आतमा शरणा गहें।। इन्द्र, फणीन्द्र और नरेन्द्र भी जीवों को शरण नहीं हैं; अतः उन सब को अशरण जानकर उत्तम मुनिराज तो एक आत्मा से ही आत्मा को जानते हैं।