Book Title: Jogsaru Yogsar
Author(s): Yogindudev, 
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 15
________________ जोगसारु (योगसार) (दूहा-५७) रयण दीउ दिणयर दहिउ, दुद्ध घीव पाहाणु । सुण्णउ रुउ फलिहउ अगिणि, णव दिळंता जाणु।। (हरिगीत) रतन दीपक सूर्य घी दधि दूध पत्थर अर दहन । सुवर्ण रूपा स्फटिक मणि से जानिये निज आत्मन् ।। जीव को समझने के लिए इन ९ दृष्टान्तों को अच्छी तरह समझो - १. रत्न, २. दीप, ३. सूर्य, ४. दही-दूध-घी (अथवा दही-दूध में घी), ५. पाषाण, ६. सोना, ७. चाँदी, ८. स्फटिक मणि और ९. अग्नि। (दूहा-५८) देहादिउ जो परु मुणइ, जेहउ सुण्णु अयासु। सो लह पावइ बंभु परु, केवलु करइ पयासु।। (हरिगीत ) शून्य नभ सम भिन्न जाने देह को जो आतमा । सर्वज्ञता को प्राप्त हो अर शीघ्र पावे आतमा ।। जो जीव शून्य आकाश की भाँति देहादि को भी पर मानता है, वह शीघ्र परब्रह्म को प्राप्त करता है और केवलज्ञान का प्रकाश करता है। (दूहा-५९) जेहउ सुद्ध अयासु जिय, तेहउ अप्पा वुत्तु । आयासु वि जडु जाणि जिय, अप्पा चेयणुवंतु ।। (हरिगीत) आकाश सम ही शुद्ध है निज आतमा परमातमा। आकाश है जड़ किन्तु चेतन तत्त्व तेरा आतमा ।। हे जीव ! जिनेन्द्र देव ने कहा है कि जैसा आकाश शुद्ध है, वैसा ही यह आत्मा भी शुद्ध है। उसमें भी आकाश तो जड़ है, परन्तु आत्मा चेतन है। जोगसारु (योगसार) (दूहा-६०) णासग्गि अभिंतरहँ, जे जोवहिँ असरीरु । बाहुडि जम्मि ण संभवहिँ, पिवहिँण जणणी-खीरु।। (हरिगीत) नासाग्र दृष्टिवंत हो देखें अदेही जीव को। वे जनम धारण ना करें ना पियें जननी-क्षीर को।। जो जीव नासाग्र दृष्टि से अपने अन्तर में अशरीरी आत्मा को देखते हैं, वे इस संसार में पुनः लज्जाजनक जन्म धारण नहीं करते, माँ का दूध नहीं पीते। (दूहा-६१) असरीरु वि सुसरीरु मुणि, इहु सरीरु जडु जाणि । मिच्छा-मोहु परिच्चयहि, मुत्ति णियं वि ण माणि।। (हरिगीत ) अशरीर को सुशरीर अर इस देह को जड़ जान लो। सब छोड़ मिथ्या-मोह इस जड़ देह को पर मान लो।। हे जीव ! यद्यपि यह आत्मा अशरीरी है, तथापि तुम इसे स्वशरीरप्रमाण भी मानो । तथा यह भी अच्छी तरह जानो कि शरीर तो जड़ और मूर्तिक है, परन्तु आत्मा जड़ और मूर्तिक नहीं है, अतः तुम अपने मिथ्या-मोह का त्याग करो और शरीर-जैसा स्वयं को मत मानो। (दूहा-६२) अप्पइँ अप्पु मुणंतयहँ, किं हा फलु होइ। केवल-णाणु वि परिणवइ, सासय-सुक्खु लहेइ ।। (हरिगीत) अपनत्व आतम में रहे तो कौन-सा फल ना मिले? बस होय केवलज्ञान एवं अखय आनँद परिणमे ।। अहो, आत्मा से आत्मा को जानने पर यहाँ कौन-सा फल नहीं मिलता? केवलज्ञान तक हो जाता है और जीव को शाश्वत सुख की भी प्राप्ति हो जाती है।

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