Book Title: Jivan Sarvasva
Author(s): Ratnasundarsuri
Publisher: Ratnasundarsuriji

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Page 5
________________ गुरुदेव कहते हैं...... धर्म ने ही हमारी दुर्गति के महारोग दूर किये, पापोदय का महादारिद्रय दूर किया और प्रशंसनीय मानवगति में स्थान दिया। तो फिर उसके प्रति कितनी कृतज्ञता होनी चाहिए ? उसके प्रति हृदय में बहुमानभाव कैसा होना चाहिए ? सोचो तो ! मुमुक्षु अवस्था से ही मैं पढ़ाई में कैसा कमजोर था यह तो आप जानते ही हैं ना ? किसी भी तरह मैं "वंदित्तु" सीखने के लिए तैयार नहीं था, क्योंकि उसमें ५० श्लोक थे। पर आपने गजब का नुस्खा अपनाया । मुझे बुलाकर इतना ही कहा, "तुम्हें पहले दिन पहला श्लोक याद करना है और दूसरे दिन पचासवाँ श्लोक ! तीसरे दिन दूसरा श्लोक याद करना है और चौथे दिन उनपचासवाँ श्लोक ! श्लोक की रेल में एक डिब्बा आगे से जोड़ते जाना और एक डिब्बा पीछे से जोड़ते जाना । यह करते करते तुम्हारा "वंदित्तु" पूरा हो जायेगा । "पर वंदित्तु बोलने का मौका आयेगा तब क्या श्लोक में गड़बड़ नहीं होगी ?" "तुम मन के गणित को नहीं जानते। वह श्लोकों को उसके क्रम में ही रचता जायेगा। तुम एक बार इस तरह याद कर लो, फिर देखो कैसा चमत्कार होता है !" और गुरुदेव, कमाल हो गया । ५० वें दिन मुझे संपूर्ण वंदित्तु याद हो गया और उसी दिन शाम को प्रतिक्रमण में एक भी गलती किये बिना मैं पूरा वंदित्तु बोल भी गया। मेरे इस पराक्रम (?) से मैं खुद कैसा अचंभित था, आनंदित था ? गुरुदेव ! अच्छे-अच्छे मानसशास्त्रियों को भी आपके सामने घुटने टेक देने का मन हो जाए ऐसी अद्भुत युक्ति-प्रयुक्तियाँ थीं आपके पास मन को समझने की समझाने की ! कमाल ! कमाल !! -

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