Book Title: Jivan Sarvasva
Author(s): Ratnasundarsuri
Publisher: Ratnasundarsuriji

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Page 43
________________ गुरुदेव कहते हैं... सुख-संपत्ति में पुण्य की सहायता का कई बार अनुभव किया। आपत्ति में देव-गुरुधर्म की सहायता का क्या कभी अनुभव किया ? सूरत अठवागेट के उपाश्रय में गुरुदेव, रात को मैं आपके पास बैठा था। आपकी तबीयत कुछ नरम थी।आहार की अरुचि, निद्रा में विक्षेप, ये तकलीफें तो थी ही, परन्तु चिंताजनक तकलीफ यह थी कि आपके शरीर पर लकवे का सामान्य हमला हो चुका था। "गुरुदेव, एक विनती है।" "बोलो" "आज बम्बई से आए डॉ.बंसल एक बात विशेषरुप से कहकर गये हैं।" "क्या?" "आपके गुरुदेव को खड़े खडे प्रतिक्रमण मत करने देना। यदि संतुलन गँवा बैठे और गिर पड़े तो ब्रेन हेमरेज होजायेगा अथवा हार्ट-अटेक आजाएगा या फिर लकवे का इससे अधिक बड़ा हमला हो जायेगा।" "मतलब? तुम कहना क्या चाहते हो?" "अब आप बैठे-बैठे ही प्रतिक्रमण कीजिए।" "देखो रत्नसुंदर, तुम्हें मेरे इर्द-गिर्द दो-तीन साधुओं को खड़े करना हो तो कर देना, लेकिन प्रतिक्रमण मुझसे बैठे-बैठे तो कतई नहीं होगा!" गुरुदेव! शरीर को सहलाने की बात तो कभी आपके दिमाग में आती ही नहीं थी, पर शरीर को संभालने का समय आया तब भी आपने प्रभु की आज्ञा का परिपालन करना ही उचित समझा। आपकी इस नि:स्पृहता को हमारे अनन्त-अनन्त वंदन!

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