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गुरुदेव कहते हैं....
जैसे ताँबे, पीतल पर कलाई चढ़ाने के बाद उस पर जंग नहीं लगता वैसे ही, आत्मा पर वीतराग परमात्मा के धर्म का रंग चढ़ने के बाद उस पर अनावश्यक रागादि पापों का जंग नहीं लगता।
स्वास्थ्य, गुरुदेव, आपका अब अच्छा खासा बिगड़ गया था। विशेषकर, खाने के प्रति अरुचि, कमजोरी और अनिद्रा-ये तीनों तकलीफें
तो रोज की हो चुकी थीं। फिर भी आप मन से मस्त, प्रसन्न एवं स्वस्थ थे। इस स्थिति में भी हम सबके कल्याण की चिन्ता करते थे । प्रात: काल वंदन हेतु एकत्रित होने वाले हम सबको छोटी-सी हितशिक्षा भी देते ही थे।
पर, बाकी समय आपके कक्ष का द्वार लगभग बंद रहता था जो आपके स्वभाव के विपरीत था। मुझे इस बात से आश्चर्य होता था। एक दिन दोपहर में मैं आपके पास बैठा था और आपने स्वयं ही बात निकाली
"रत्नसुंदर, मुझे लगता है कि आगम एवं शास्त्रों के वाचन में मैं अब पूर्णरूप से डूब जाऊँ । जीवनभर सबको बहुत संभाला। जिम्मेदारी थी इसलिए श्रावकों के साथ परिचय भी किये, लेकिन अब लगता है कि बस, बहुत हुआ । तुम साधुओं को मेरे पास भेजा करो। 'योगदृष्टि समुच्चय' पर मैं उन सबको अध्ययन कराना चाहता हूँ। इसके अलावा भी किसी को और किसी ग्रंथ का अध्ययन करना हो तो भले ही नि:संकोच आ जाए मेरे पास । पर सुनो, अब अध्ययन-अध्यापन के अलावा और किसी भी विषय में मुझे रुचि नहीं है।"
गुरुदेव !
जीवनभर आपने वैसे भी अन्य किसी निरर्थक विषय में कहाँ रुचि रखी है ? आपकी रुचि अरिहन्त, अंतर्मुखता, अप्रमत्तता, अहोभाव, अध्ययन, अध्यापन में ही तो रही है ना ?
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