Book Title: Jivan Sarvasva
Author(s): Ratnasundarsuri
Publisher: Ratnasundarsuriji

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Page 11
________________ A गुरुदेव कहते हैं... पाप के उदय में जीव को क्लेश, संताप, असमाधि बहुत होती है, इसलिए। आत्मा अशुभ कर्म के बंधन से दुर्गति की भागी ही नहीं, धर्महीन भी बनती है। अत: ऐसे पाप से बचने के लिए पुण्य चाहिए। एवं पुण्य के बिना सद्गति और सद् धर्म की सामग्री नहीं मिलती। अत: पुण्य की आवश्यकता होती है। ऐसी समझ के कारण यदि पुण्य का लोभ रहे तो ऐसे लोभ को गलत नहीं कहा जा सकता। वह स्थान था मुंबई-नमिनाथ उपाश्रय । संयमजीवन अंगीकार किये मुझे अभी एक वर्ष भी पूर्ण नहीं हुआ था। मैं अपने आसन पर बैठेबैठेHERO पेन का ढक्कन देख रहा था। सुवर्ण रंगी ढक्कन देखकर मेरे चेहरे पर छलक आई मनभावन खुशी, गुरुदेव! आपकी नजरों में आ गई। "रत्नसुंदर....' मैंतुरन्त आपके निकट आया। "क्या कर रहे थे?" "विशेष कुछ नहीं।" "पेन का ढक्कन..." "जी, वही देख रहा था।" "बहुत सुंदर है ना?" "जी हाँ" और गुरुदेव, आपश्री ने एक मुनिवर को बुलाया। पात्र रंगने का काला रंग मंगवाया और मुनिवर को सुवर्णरंग के ढक्कन को काला रंग लगाने की आज्ञा दी। "गुरुदेव, ढक्कन खराब हो जाएगा..." "ढक्कन खराब हो जाए तो कोई बात नहीं, पर ढक्कन पर राग प्रकट करने से तुम्हारी आत्मा कलुषित हो जाए, यह कैसे चलेगा? गुरुदेव! आत्महित की ऐसी चिन्ता करने वाले आपश्री जैसे गुरुदेव को पाकर मुझे ऐसा महसूस होता है कि सचमुच मैं जीवन का बहुत बड़ा युद्ध जीत गया हूँ।

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