Book Title: Jivan Sarvasva
Author(s): Ratnasundarsuri
Publisher: Ratnasundarsuriji

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Page 16
________________ MORY गुरुदेव कहते हैं... यदि गुण गाने हैं या प्रशंसा करनी है तो दूसरों की करो और निन्दा करनी है तो स्वयं की। कारण? शुभ कोटि की आत्मनिन्दा तो एक ऐसा असरकारक रसायन है जो भयंकर कर्म के रोग को भी क्षणभर में ध्वस्त कर देता है। "यहाँ आओ देवसुंदर,यह पत्र आपने लिखा है?" संसारी के नाते मेरे पिताजी और संयम के नाते मेरे गुरुजी यानि देवसुंदर महाराज।गुरुदेव, आपने उन्हें बुलाया। "हाँ, मैंने लिखा है।" "उसमें आपने क्या लिखा है इसका आपको कुछ खयाल है भला? "नहीं।" "देखो, इस पोस्टकार्ड में आपने किसी को लिखा है, "तुम्हारे पिताजी की आज्ञा का पालन करना। हमने संयमजीवन स्वीकार किया है। हम ऐसा लिख सकते हैं भला?" "क्यों नहीं लिख सकते?" "नहीं लिख सकते।" "पर क्यों?" "उसके पिता उसे व्यापार में अनीति का आचरण करने की आज्ञाभी दे सकते हैं, होटल में जाने की आज्ञा भी दे सकते हैं और रात्रिभोजन करने की आज्ञा भी दे सकते हैं। ये सभी आज्ञाएँ क्या उसे माननी चाहिए ?" "नहीं।" "बस, इसीलिए आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ कि किसी को भी पत्र लिखो तब इतना विशेष रूप से ध्यान रखो कि उसकी किसी भी प्रकार की पापप्रवृत्ति में हमारी सहमति कदापि न हो।" गुरुदेव! आत्मा के प्रत्येक प्रदेश पर पाप से सदैव दूर रहने की वृत्ति आपने कैसे आत्मसात् की होगी कि नितांत छोटी दिखने वाली बात में भी आप इतनी सावधानी रख लेते थे। वंदन है आपके "पापभय"गुण को।

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