Book Title: Jivan Sarvasva
Author(s): Ratnasundarsuri
Publisher: Ratnasundarsuriji

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Page 27
________________ "गुरुदेव, मेरा कोई पत्र आया था?" "अठारह पन्ने का?" गुरुदेव कहते हैं... कभी ऐसा हो सकता है कि क्रोध करने से सामने वाला दब जाए और वह बाहर क्रोधन भी दिखाये, पर...उसके दिल में हमारे प्रति जो सद्भाव है उसे चोट ज़रूर पहुंचेगी। और कभी सामने वाला दब जाए ऐसा न हो तो उस बेचारे के मन में क्रोध जागृत होगा अथवा बढ़ेगा। इन दोनों ही परिस्थितियों में क्रोध हमारे लिए नुकसानदायक है। एक बाह्य चीज बिगड़ने पर दूसरी बाह्य चीज बिगाड़ने का मूर्ख व्यापार क्यों? "एक युवक का लिखा हुआ?" "हाँ, पर तुम्हें ये सब पूछने की क्या आवश्यकता है?" "गुरुदेव, पत्र लिखने वाला युवक ऊपर के खंड में ही खड़ा है। उसने मुझे कहा कि, 'मेरा रजिस्टर्ड ए.डी.से भेजा हुआ पत्र मिल गया होगा, उसकी रसीद पर आपके गुरुदेव के दस्तखत हैं। आपको वह पत्र मिल तो गया है ना? बस, इसीलिए आपको यह पूछने हेतु मैं यहाँ आया हूँ।" "वह पत्र मैंने फाड़ दिया है।" गुरुदेव, उस वक्त मेरे चेहरे के भावों को देखते ही आपने मुझे पास बिठाकर वात्सल्यभरे शब्दों में कहा था, "युवक द्वारा तुम्हे लिखे गये उस पत्र में उसने तुम्हारे प्रवचनों की मुक्त मन से प्रशंसा की थी, पर मुझे यह महसूस हुआ कि यह प्रशंसा तुम्हारे विकास को स्थगित भी कर सकती है, क्योंकि प्रशंसा को हजम कर सके इतनी परिपक्वता तुम में आ गई हो ऐसा मुझे दिखाई नहीं देता।और इसी कारण वह पत्र तुम्हें न देकर मैंने फाड़ दिया है।" गुरुदेव! मेरी आत्मा की ऐसी चिन्ता विगत अनंत भवों में किसी ने की होगी या नहीं, इसमें मुझे संदेह है। एक विनती करूं? आप अभी जहाँ भी हो वहीं से मेरी ऐसी ही चिन्ता करते रहियेगा। तभी मैं मेरी आत्मा को बचा पाऊँगा।

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