Book Title: Jivan Sarvasva
Author(s): Ratnasundarsuri
Publisher: Ratnasundarsuriji

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Page 10
________________ गुरुदेव कहते हैं... मोह के नाटक अथवा क्रोधादि भाव क्रूर कसाई जैसे हैं। ये चाकू लेकर खड़े हैं। जीव को मानो कह रहे हैं"तुम हमारे चुंगल में आ जाओ। तुम्हें छुरियों से घायल कर अनंतकाल की दुर्गति की यात्रा पर भेज देंगे।" "गुरुदेव, यहाँ बहुत ठण्डी हवा चल रही है। आपको ठंड लग जायेगी। आपका आसन सामने की दीवार के पास लगा देते हैं। वहाँ हवा लगभग नहीं है। एक तो यह ठण्ड का मौसम है और फिर आपको शीत की परेशानी पहले से है। नाहक स्वास्थ्य बिगड़ेगा तो परेशानी खड़ी हो जायेगी।" "नहीं मेरा आसन यहीं ठीक है ।" गुरुदेव, आपके इस जवाब को सुनकर मैं कुछ कहूँ उसके पहले ही आप बोल उठे "देखो रत्नसुंदर, इसी जगह मेरा आसन रखने का मेरा आग्रह सकारण है। इस जगह से सभी साधुओं पर मेरी नज़र रहती है, एक कारण यह है और दूसरा कारण यह है कि कोई भी व्यक्ति चाहे वह पुरुष हो या स्त्री, युवा हो या युवती, बालक हो या बालिका - यदि उपाश्रय में आता है तो यहीं से आता है। मैं यहीं बैठूं तो भीतर कौन जा रहा है, कौन किसके पास बैठा है यह मेरे ध्यान में रहेगा ना ? काल अत्यन्त विषम है। संयम का पालन दिन-प्रतिदिन कठिन होता जा रहा है और इसीलिए यही व्यवस्था बनाये रखना मुझे अधिक हितकारी लगता है। गुरुदेव! आश्रितों की सुरक्षा के लिए और उनका संयम टिकाने एवं उसे विशुद्ध व निर्मल बनाये रखने के लिए आप स्वयं की देह के प्रति भी इस हद तक कठोर हो सकते थे-हमारे सद्भाग्य की यह पराकाष्ठा है, इसके अलावा और क्या कहूँ ? W १९

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