Book Title: Jinabhashita 2008 12
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 12
________________ अर्थात् संश्लेष सम्बन्ध सहित बाकी दो वस्तुओं | जीव पुद्गल है (धवल १/१२०) (जीवो --- पोग्गलो) को विषय करनेवाला अनुपचरित असद्भूत-व्यवहार-नय | तथा कथंचित् जीव अशरीरी है। कथंचित् से अभिप्राय है, जैसे जीव का शरीर है। (देवसेनाचार्य) निश्चयनय की दृष्टि का है। यदि ऐसा स्याद्वाद नहीं इसलिए आयु-कर्म और जीव का चूँकि संश्लेष | माना जाय तो जैन न्यायशास्त्र तथा जिनागम के दूषितसम्बन्ध है, अतः संश्लेष सम्बन्ध सहित इन दोनों वस्तुओं | मिथ्या होने का प्रसंग आयेगा। को विषय करनेवाला नय यद्यपि देवसेनस्वामी के | परन्तु कोई जीव यदि व्यवहार के कथन को भी मतानुसार अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय है, परन्तु इसी | निश्चय की आँख से देखकर, निश्चय को ही मान्यता नय के विषय को समयसार की आत्मख्याति में (आयु देकर तथा निश्चय से तुलना कर फिर व्यवहार को सर्वथा कर्म से जीव का जीवन और मरण होता है-गा० २४८ | झूठ कहे तो जैनागम का अज्ञ ही होने से ऐसा प्राणी से २५२ की समयसार टीका) निश्चय का विषय कहा, ऐकान्तिक दृष्टिवाला कहलाएगा, क्योंकि "अपने अभिप्राय क्योंकि यहाँ इस नय की तुलना उपचरित असद्भूत | तैं निश्चय नय की मुख्यता करि जो कथन किया गया, व्यवहार से हो रही है (एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य | ताही कौं ग्रहिकरि मिथ्यादृष्टि को धारै है।" (मोक्षमार्ग का मारा जाना आदि, उपचरित असद्भूत व्यवहार है)| प्रकाशक, पृ. २९१, सस्ती ग्रन्थमाला, धर्मपुरा, दिल्ली)। अतः 'उपचरित असद्भूत व्यवहार की अपेक्षा अनुपचरित | अर्थात् यह (जीव) अपने अभिप्राय से निश्चयनय असद्भूत व्यवहारनय निश्चयनय है' यह सिद्ध होता है। | की मुख्यता से जो कथन किया हो, उसी को ग्रहण इस प्रकार अपने से सूक्ष्म विषय की अपेक्षा | करके मिथ्या दृष्टि को धारण करता है। (पृ० १९८ अधिक सूक्ष्मविषयवाला नय निश्चय संज्ञा को प्राप्त हो | दि० जैन स्वाध्याय मंदिर, सोनगढ़)। पूज्य श्रीमद्राजचन्द्र जाता है तथा उस सूक्ष्म से सूक्ष्मतर (अतिसूक्ष्म) विषय | कहते हैं कि "सर्व जीव हितकारी ज्ञानी पुरुष की वाणी का नय सम्मुख हो तो उस सूक्ष्मतर विषय की अपेक्षा | को, किसी भी एकान्त दृष्टि को ग्रहण करके, अहितकारी वह सूक्ष्म विषय व्यवहार कहा जाता है और सूक्ष्मतर | अर्थ में न ले जावें, यह उपयोग निरन्तर स्मरण में रखने विषय निश्चय नय का कहा जाता है। (नय ज्ञाता है | योग्य है।' (पृष्ठ ६८८, श्रीमद्राजचन्द्र', परमश्रुत प्रभावक वस्तु ज्ञेय है, नय विषयी है तथा ज्ञेय विषय, यह सर्वत्र | मण्डल, राजचन्द्र आश्रम, अगास) ज्ञातव्य है।) फिर, जब सूक्ष्मतर विषय के सामने और | सर्वधर्मों / दर्शनों से जैन-दर्शन का भेद ही यह अत्यन्त सूक्ष्म विषय (सूक्ष्मतम विषय) खड़ा हो तो उस | है कि जैनदर्शन स्याद्वादी (अनेकान्तवादी) है तथा शेष सूक्ष्मतम विषय की अपेक्षा सूक्ष्मतर विषय का ज्ञाता नय | दर्शन अस्याद्वादी हैं। ऐसे इस स्याद्वादी दर्शन में भी एक भी व्यवहार नय कहा जाता है। | पक्ष को ही ग्रहण करें तथा इतर पक्ष को मात्र इसलिए इस प्रकार किसी वस्तु या वस्तु-सम्बन्ध या वस्त्वंश टाल दें कि वह व्यवहार विषयीकृत या द्रव्यद्वयविषयक को विषय करनेवाला नय कौन-सा है या होगा यह अपेक्षा | है, तो नहीं चाहते हुए भी हममें एकान्त दृष्टि-ग्रहण पर आधारित है, ऐकान्तिक नहीं। | का दूषण अवश्य प्राप्त होगा। दूसरा, प्राश्निक को इस स्थल पर यह जानना अध्यात्म की अपेक्षा (ध्येय तो) हमें अकेला बनना चाहिए कि दो भिन्न-भिन्न द्रव्यों को विषय करनेवाले | है, अत: एक मात्र चैतन्य (ध्रुव) तत्त्व ही ध्येय होना नय या विवक्षाएँ भी न्याय-शास्त्र एवं आगम में समीचीन | चाहिए। परन्तु ज्ञेय तो व्यवहार नय भी एवं तद्गृहीत मानी गई हैं यथा- कथंचित् जीव शरीर है, कथंचित् | विषय भी है। वह भी इसलिए कि व्यवहार-विषयीकृत जीव शरीर नहीं है। 'आत्मा एव शरीरम् इति' आत्मा | पदार्थ या पदार्थ-सम्बन्ध या अशुद्धि या बन्ध या पर्याय ही शरीर है (राजवार्तिक ५/२४)। या भेद या द्वैत भी अपने स्थान पर यथार्थ है। व्यवहार "व्यवहारेण औदारिकादिशरीरमस्येति शरीरी, नय का विषय कहीं झूठ नहीं है, यह ध्यान रहे। "ण निश्चयेनाशरीरी।" (गो.जीव.,जी.प्र.टी.३६६)। च ववहारणओ चप्पलओ---" अर्थात्-व्यवहार नय झूठ कथंचित् (व्यवहारनय से) जीव शरीरी है (गो. नहीं होता। (जयधवला पु०१ पृष्ठ ६ पंक्ति ३-४) जी. ३६६) या जीव ही शरीर है (रा.वा.५/२४/९) या अतः ‘ते उण ण दिट्ठसमओ विहयइ सच्चे व 10 दिसम्बर 2008 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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