Book Title: Jinabhashita 2008 12
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 22
________________ लिखे गये, वे भले ही जनसामान्य की भाषा में नहीं। आत्मसात् करना पड़ता है। थे, परन्तु वे फोनेटिक थे। उनमें ध्वनिगत विशेषताएँ थीं। मन्दिर के सामने लटका हुआ घंटा, उस घंटे की हमारे शास्त्र-भाषागत कम, ध्वनिगत ज्यादा थे। ध्वनि में | आवाज तथा ओम् की आवाज में एक आंतरिक सम्बन्ध जो बारीक संवेदनाएँ थीं, उनका अनुवाद होते ही, भले | है। दोनों, घंटे की आवाज और ओम् की आवाज मन्दिर ही वे साधारण पढ़े-लिखों के लिए समझने योग्य बन | को दिन भर चार्ज करती हैं। मन्दिर का विज्ञान दक्षिण गए हों, परन्तु उनकी ध्वनिगत इम्फेसिस बदल गई है। भारत के मन्दिरों में अब भी विद्यमान है। श्री मानतुंगाचार्य विरचित भक्तामरस्तोत्र का सम्पूर्ण प्रत्येक मंत्र जो मंदिर में बोला जाता है, उस मंत्र काव्य पूरा ध्वनिविज्ञान का एक समर्थ शास्त्र है। इसके | से मन्दिर के भीतर विद्यमान प्रकाश का भी संबंध है। फोनेटिक पर कभी किसी ने ध्यान दिया कि एक अनपढ़ | उसी के आधार पर मंदिर में बहुत मद्धिम प्रकाश किया महिला को भी पुरा स्तोत्र सहज में ही कंठस्थ हो जाया जाता है। घी का दीपक चुना गया, जिसका प्रकाश शान्त करता था। सुनकर ही वह याद हो जाता है। संस्कृत | और आँख को स्निग्धता प्रदान करता है। बिजली के कर ध्वनिगत अत्यन्त सरल एवं तेज बल्ब जलाकर प्रकाश करना मंदिर में उपयोगी नहीं। गेय है। समयसार में केवल प्राकृत भाषा की गाथायें | घी का दीपक आँख की ज्योति बढ़ाता है। यह बाहर ही नहीं हैं, उसमें आचार्य कुन्दकुन्ददेव का वह आत्म- | की व्यवस्था बड़े अनुभव के बाद प्रयोग में लायी गयी। गत अनुभव समाया है, जिसे उन्होंने ध्वनि या शब्द- मन्दिर हमारी आत्म-संस्कृति का बहुत बड़ा स्रोत ब्रह्म से सृजित किया था। जो जितना फोनेटिक होता | है। मन्दिर का एक वर्तुल है जो जीवन्त है। उस जीवन्त है, उसे जितनी भी बार पढ़ा जाता है, उतनी बार वह | वर्तुल के कारण पूरा गाँव पवित्र और निर्दोष रहता था। नया लगता है। कितना ही छोटा गाँव क्यों न हो, वहाँ एक मन्दिर तो हमारी पुरानी पूजायें भाषा की अपेक्षा ध्वनि-प्रधान | होता ही था। आज तर्क और बुद्धि ने मन्दिरों के अर्थ थीं। उनमें एक संगीत था, एक रिदिम थी, एक स्वर- | को तोड़ दिया है। कॉलेज और स्कूल की नयी शिक्षा लय का विज्ञान था। आधुनिक पूजाओं में वह आध्यात्म | ने मन्दिर पर प्रश्न चिन्ह लगा दिये हैं? नहीं रहा। क्यों नहीं रहा? क्योंकि उनमें भाषा प्रधान मूर्ति और मूर्ति पूजा- मूर्ति को प्राण दिये बिना हो गई। ध्वनिगत विशेषताएँ न्यून रह गईं। भावों का वह पत्थर है। प्राण-प्रतिष्ठा के बाद मूर्ति जीवन्त व्यक्तित्व उद्रेक, भाषा से नहीं, ध्वनि से उठता हैं। ओम् का अब हो जाती है। जहाँ जीवन है, वहाँ आकार और निराकार भले ही समझदार लोग अर्थ लगाने लगे हैं, परन्तु ओम् का मिलन है। शरीर का आकार है, पदार्थ या पुद्गल में प्रश्न अर्थ का नहीं था, असल में उसमें कोई अर्थ | है, लेकिन चेतना का कोई आकार नहीं। जब तक मूर्ति नहीं है, एक ध्वनिगत चोट है उसमें। बौद्ध भिक्षु एक | की प्रतिष्ठा नहीं हुई, वह आकार है। प्राण प्रतिष्ठा हुई मंत्र का बार-बार आवर्तन करता है- ओम् मणि पो | कि भक्त के लिए वह मूर्ति जीवन्त हो जाती है। हुं। इसका क्या अर्थ है, यह सवाल महत्त्वपूर्ण नहीं है, पूजा है मूर्त से अमूर्त की यात्रा। जैसे कोई सागर बल्कि इसका ऊर्जा के निर्माण में कितनी उपयोगिता | में छलांग लगाने के लिए तट का सहारा लेता है, ठीक है, यह महत्त्वपूर्ण है। ओम् की मीनिंग नहीं, यूटिलिटी | ऐसे ही निराकार में प्रवेश के लिए मूर्ति का सहारा लिया है। इसी प्रकार मन्दिर का कोई अर्थ नहीं, उपयोग है। | जाता है। पूजा का अर्थ है- परमात्मा जैसा बनने की मन्दिर जो संस्कार और कला सिखाता है, उसे हम बचपन | एक कोशिश। पूजा का अर्थ है जैसा परमात्मा जी रहा से "इम्बाईब" करते हैं, उसे सहज उसी प्रकार आत्मसात् | है, ऐसे ही जीने का भाव होना। हम अष्ट द्रव्य से करते हैं, जैसे कि एक बालक अपने स्वर्णकार पिता | अर्हन्त-प्रतिमा का पूजन करते हैं। सभी द्रव्यों को चढ़ाने के पास रोज-रोज बैठकर आभूषण बनाना स्वयं सीख | का एक ही भाव है- यह संसार विदा हो जाये, जिसमें लेता है। वह उसके आभूषण निर्माणकला को इम्बाईब | दुःख है, संताप है, भूख-प्यास है, कर्मों की अठखेलियाँ (ग्रहण) कर लेता है। विज्ञान को सिखा सकते हैं, पढ़ा | हैं और उस सुख को पा जाऊँ, जिसमें मूर्त्तिमान् विराजा सकते हैं, परन्तु कला को सिखा नहीं सकते, उसे तो | है, उस शाश्वत अविनाशी सुख को, जिसे हम मोक्ष 20 दिसम्बर 2008 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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