Book Title: Jinabhashita 2008 12
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 27
________________ जिज्ञासा - समाधान पं० रतनलाल बैनाड़ा प्रश्नकर्ता - धर्मचन्द जैन, देहली। पापों का भी पूर्णत: त्याग नहीं किया है, पूज्य की कोटि जिज्ञासा - ॐ ह्रां ह्रीं आदि शब्दों का क्या अर्थ में कैसे आ सकते हैं? होता है ? हमारे द्वारा पूज्य नवदेवता होते हैं। कहा भी हैअरहंत सिद्ध साहू तिदयं जिण धम्म वयण पडिमाहू | जिणणिलया इदिराए णवदेवा दिन्तु मे बोहि ॥ अर्थ - अरिहन्त, सिद्ध आचार्य, उपाध्याय, साधु, ऊँ = यह शब्द पंचपरमेष्ठी, आत्मवाचक और जिनधर्म, जिनवाणी, जिनप्रतिमा तथा जिनालय, ये नवदेवता समाधान- पं० गुलाब चन्द जी जैन द्वारा रचित 'प्रतिष्ठा - रत्नाकर' में ऊँ ह्रीं आदि बीजाक्षरों का अर्थ एवं शक्तियाँ इस प्रकार कही गईं हैं T हैं। वे मुझे रत्नत्रय की पूर्णता प्राप्त कराएँ । उपर्युक्त नवदेवता ही हमारे द्वारा पूजा एवं आरती करने योग्य हैं, अन्य नहीं । ग्यारह प्रतिमाधारी श्रावक, इन नवदेवताओं में नहीं आते। अतः वे पूजा या आरती क्लीं लक्ष्मीप्राप्ति - वाचक है। ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रीं ह्रः = ये सर्व शान्ति, मांगल्य, कल्याण के योग्य नहीं हैं । 'आरती' इस शब्द का अर्थ संस्कृतविघ्नविनाशक, सिद्धिदायक हिन्दी - आप्टे - कोश में 'प्रतिमा के समाने दीपदान या प्रणववाचक ह्रीं श्री यह कीर्तिवाचक है I = 1 यह 24 तीर्थंकरों का प्रतीक है। I क्षां क्षीं क्षं क्षं क्षैक्षों क्षौं क्ष सर्वशुद्धिबीज वाचक हैं। स्वाहा शान्ति और हवनवाचक है। उपर्युक्त को आदि लेकर समस्त बीजाक्षरों की उत्पत्ति णमोकार मंत्र तथा इस मंत्र में प्रतिपादित पंचपरमेष्ठी के नामाक्षर तीर्थंकर नामाक्षरों से हुई है । 'भगवान् शान्तिनाथ विधान' में जो 1. कर्व्यू 2. खर्व्यू 3. र्व्यू 4. इर्व्यू 5. म्यू 6. म्र्व्यू 7. हम्र्व्यू 8. म्यू ये आठ शब्द आते हैं, ये शक्ति प्रदान करनेवाले, आठ वज्र हैं। = = सर्वकल्याण, कपूर - दीपक घुमाना, आरती उतारना' लिखा है। अर्थात् प्रतिमा के सामने सायंकाल के समय दीपदान करते हुए गुणानुवाद करना आरती कहलाता है। ऐसी दशा में वीतरागता एवं अनन्तचतुष्टय से परिपूर्ण जिनप्रतिमा के समक्ष ग्यारह प्रतिमाधारी श्रावक की आरती उतारना कैसे उचित कहा जा सकता है? आचार्य कुन्दकुन्द ने दर्शनपाहुड़ की 26वीं गाथा में 'असंजदं ण बन्दे' कहा है, जिसका अर्थ है असंयमी को नमोस्तु नहीं करना चाहिए। एलक, आर्यिका, क्षुल्लक एवं क्षुल्लिका ये सभी संयमासंयम नामक पंचम गुणस्थानवर्ती हैं। ये संयमी भी नहीं हैं क्योंकि आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/1 की टीका में असंयम तीन प्रकार का कहा है, अनन्तानुबन्धी का उदय, अप्रत्याख्यानावरण का उदय, प्रत्याख्यानावरण का उदय । उपर्युक्त 11 प्रतिमाधारियों को प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय होने के कारण असंयमी कहा जाता है। ऐसे असंयमी पूजा या आरती के योग्य नहीं होते। जिनवाणी संग्रह आदि पूजा की किताबों में इनकी पूजा या आरती दृष्टिगोचर नहीं होती। इनको मोक्षमार्गी भी नहीं कहा जाता, क्योंकि आचार्य कुन्दकुन्द ने सूत्रपाहुड़ गाथा - 23 में 'ग्गो विमोक्खमग्गो, सेसा उम्मग्गया सव्वे' अर्थनग्न वेश ही मोक्षमार्ग है, शेष सब उन्मार्ग है, ऐसा कहा है । ग्यारह प्रतिमाधारी उपर्युक्त सभी वस्त्रधारी होने के कारण मोक्षमार्गी नहीं हैं। अतः पूजा, आरती आदि के दिसम्बर 2008 जिनभाषित 25 जिज्ञासा- पंचपरमेष्ठी की आरती में "छट्ठी ग्यारह प्रतिमाधारी, श्रावक बन्दों आनन्दकारी" यह बोलना उचित है या नहीं ? Jain Education International समाधान- पंचपरमेष्ठी की आरती में पाँचों परमेष्ठियों की आरती करना उचित है। ग्यारह प्रतिमाधारी श्रावक को पंच परमेष्ठी की आरती में कैसे समाविष्ट कर लिया गया, यह प्रश्न वास्तव में विचारणीय है । पंचपरमेष्ठी में अरिहन्त एवं सिद्ध तो वीतरागता एवं विज्ञानता की उत्कृष्ट दशा को प्राप्त हो चुके हैं, अतः वे तो परमपूज्य हैं ही। आचार्य, उपाध्याय एवं साधु परमेष्ठी भी वीतरागता एवं विज्ञानता के आराधक होने तथा उनको एक देश प्राप्त कर लेने के कारण पूज्य की कोटि में आते हैं, परन्तु ग्यारह प्रतिमाधारी, एक, क्षुल्लक तथा क्षुल्लिका, जिन्होंने अभी तक पाँचों For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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