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और पर के शरीर के संयोग से पैदा होता है। यह मनुष्य को गिराता है, उसे लोगों की दृष्टि में नीचा करता है। यह अल्पकाल के लिए होता है तथा दोनों ही लोकों में दुखदाई है । तथा सुलभ भी नहीं है । ( 1809)
धर्म पुरुषार्थ - धर्म पवित्र है क्योंकि रत्नत्रयात्मक धर्म में स्थित को, देव भी नमस्कार करते हैं । पवित्र धर्म के सम्बन्ध से आत्मा भी पवित्र है । धर्म से ही साधु भी जल्लौषधि आदि ऋद्धियों को प्राप्त करते हैं अर्थात् रत्नत्रय रूप धर्म का साधन करने से साधुओं समाधान- पुरुषार्थ शब्द का अर्थ, अष्टशती में के शरीर का मल भी औषधि रूप हो जाता है । इस प्रकार कहा है- 'पौरुषं पुनरिह चेष्टितम्'
मोक्षपुरुषार्थ का स्वरूप ज्ञानार्णव (3/6 ) में इस प्रकार कहा है- जो प्रकृति, प्रदेश, स्थिति तथा अनुभाग रूप समस्त कर्मों के संबंध के सर्वथा नाशरूप लक्षणवाला संसार का प्रतिपक्षी है, वही मोक्ष है । इस मोक्ष के लिए पुरुषार्थ करना मोक्ष पुरुषार्थ है । जिनेन्द्र भगवान् सर्वज्ञ हैं, वे सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्र को मुक्ति का कारण कहते हैं, वे इन सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र से ही मोक्ष की साधना करते हैं।
योग्य भी नहीं हो सकते।
उपर्युक्त सभी तथ्यों को ध्यान में रखते हुए, विज्ञजनों को पंचपरमेष्ठी की आरती करते समय 'छट्ठी ग्यारह प्रतिमाधारी, श्रावक बन्दों आनन्दकारी' नहीं बोलना चाहिए। उसके स्थान पर, छट्ठी आरती श्री जिनवाणी.... बोलना चाहिए । यही उचित मार्ग है।
प्रश्नकर्ता - अमरचन्द जैन, जबलपुर। जिज्ञासा- चार पुरुषार्थों का स्वरूप और उनकी उपयोगिता बतायें ?
अर्थ- चेष्टा करना पुरुषार्थ है । पुरुषार्थ के चार भेद कहे गये हैं, धर्म अर्थ, काम और मोक्ष । इनका स्वरूप परमात्मप्रकाश ( गाथा 126 ) में इसप्रकार कहा
है
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धम्महँ अत्थहँ कामहँ वि एयहँ सयलहँ मोक्खु । उत्तमुपभणहिं णाणि जिय अण्ण जेण ण सोक्खु ॥
अर्थ- हे जीव । धर्म, अर्थ और काम रूप इन सभी से ज्ञानी मोक्ष को ही उत्तम कहते हैं, क्योंकि अन्य से सुख नहीं है।
टीकार्थ- धर्म शब्द से यहाँ पुण्य समझना (पुण्य प्राप्ति के लिए पूजा - स्वाध्याय आदि करना), अर्थ शब्द से पुण्य का फल राज आदि सम्पदा जानना और काम शब्द से उस राज का मुख्य फल स्त्री, वस्त्र, सुगंधित माला आदि वस्तु रूप भोग जानना । इन तीनों से परम सुख नहीं है, क्लेश रूप दुख ही है ।
श्री भगवती आराधना में इस प्रकार कहा है(गाथा नं. 1807-1814 ) अर्थ - अर्थ, काम और सब मनुष्यों की देह अशुभ है । सब सुखों की खान एक धर्म ही शुभ है, शेष सब अशुभ है। (1807) अर्थ पुरुषार्थ-धन सब अनर्थों की जड़ है। यह जीव में इस लोक और परलोक संबंधी दोष लाता है अर्थात् धन पाकर मनुष्य विषयों में फँस जाता है और उससे वह इस लोक में भी निन्दा का पात्र होता है, और परलोक में भी कष्ट उठाता है । मृत्यु आदि महान् भयों का मूल होने से धन महाभय रूप है । और मोक्षमार्ग के लिए तो बेड़ी है। धन में मस्त मनुष्य मोक्ष की बात भी सुनना नहीं चाहता। ( 1808)
काम पुरुषार्थ - यह काम भोग अपवित्र अपने
26 दिसम्बर 2008 जिनभाषित
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उपर्युक्त प्रमाणों का सारांश यह है कि अर्थ व काम पुरुषार्थ अकल्याणकारी हैं, धर्म-पुरुषार्थ पुण्य रूप होने से लौकिक कल्याण को देनेवाला है और परम्परा से मोक्ष को भी प्राप्त करानेवाला है। मोक्ष - पुरुषार्थ तो साक्षात् कल्याणप्रद है। मुनि महाराज तो धर्म और मोक्ष पुरुषार्थ का साधन करते हैं। पूज्य आचार्य विद्यासागर जी महाराज के अनुसार, सद्गृहस्थों को न्याय-नीतिपूर्वक धर्म, अर्थ एवं काम पुरुषार्थ का सेवन करना चाहिए तथा तीनों पुरुषार्थों को समान समय अर्थात् 88 घंटे देने चाहिए ।
जिज्ञासा - तिर्यंच गति को अशुभ कहा है परन्तु तिर्यंच आयु को शुभ क्यों कहा है?
समाधान- उपर्युक्त जिज्ञासा के समाधान में राजवार्तिककार ने अध्याय-8, सूत्र -25 की टीका में इस प्रकार कहा है- यद्यपि तिर्यंचगति अशुभ है, परन्तु तिर्यंच आयु शुभ है क्योंकि तिर्यंचगति में जाना कोई नहीं चाहता है, परन्तु तिर्यंचगति में पहुँच जाने पर वहाँ से निकलना नहीं चाहता है। अतः तिर्यंच आयु पुण्य - प्रकृति है और तिर्यंच गति पापप्रकृति है ।
प्रश्नकर्त्ता - ब्र० जिनेश कुमार, गुड़गाँव । जिज्ञासा - संयमासंयम और संयम की प्राप्ति कम
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