Book Title: Jinabhashita 2007 11
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 4
________________ [सम्पादकीय हमारी परम्परा पुरुषार्थ की हमारी श्रमणसंस्कृति पुरुषार्थ की संस्कृति हैं, बिना पुरुषार्थ के धन या वैभव की प्राप्ति चौरकर्म है, जिससे सुख की शीतल-छाँव कभी नहीं मिल सकती। हम जिसका निरन्तर स्मरण रखते हैं, वह यही कि मेरे द्वारा ऐसा कोई कार्य न हो जाये, जो हमारे दुःख का कारण बने। श्रम-सीकर बहाने के बाद जो सफलता मिलती है, वह आत्मिक प्रसन्नता एवं शांति के भाव पैदा करती है। हिम्मत और उत्साह कठिन से कठिन लक्ष्य को आसान बना सकते हैं। आँधी और तूफान भी तिनकों को उड़ा ले जाते हैं, किन्तु उनके अस्तित्व को समाप्त नहीं कर पाते, फिर हम तो मनुष्य हैं। हम स्वयं को तो सुखी बनाते ही हैं, दूसरे दुःखी जनों को भी सुखी बना सकते हैं। 'मृच्छकटिकम' में आया है कि सर्वः खलु भवति लोके लोकः सुखसंस्थितानां चिन्तायुक्तः। विनिपतितानां नराणां प्रियकारी दुर्लभो भवति॥ अर्थात् संसार में प्रायः सभी जन सुखी एवं धनशाली मनुष्यों के शुभेच्छु हुआ करते हैं। विपत्ति में पड़े हुए मनुष्यों के प्रियकारी दुर्लभ होते हैं। यह मनुष्य का ही सौभाग्य और पुरुषार्थ है कि वह दूसरों के दुःखों को मेटने में समर्थ होता है। सम्यक कति का नाम संस्कृति है. जिसे भारतीय निरन्तर संवर्धित करते हैं। हर मन चाहता है कि वह बुद्धि, विचार, विवेक एवं कार्यों में कुशलता हासिल करे। आहार, निद्रा, भय और मैथुन, ये चार संज्ञाएँ पशु की तरह मनुष्य में हैं, किन्तु वह पशु नहीं है, क्योंकि उसके पास हिताहित का ज्ञान करानेवाली विवेकबुद्धि है। अंध पाशविक वृत्तियाँ काम, क्रोध, मोह, लोभ उसे नीचे की ओर गिराती हैं, किन्तु मनुष्य इन अंधवृत्तियों का दमनकर स्व का विकास चाहता है, स्व का विकास करता है। वह 'स्व' को भी 'पर' में वितरित कर स्वपरोपकारी हो जाता है, क्योंकि उसका लक्ष्य शांति है, सन्तोष है, प्रसन्नता है। इसलिए हमारी विकासयात्रा कभी भी 'जियो' पर समाप्त नहीं होती, बल्कि इसे 'जियो' के साथ 'जीने दो' पर ले जाना होता है। वेद-व्यास का भी मत है कि 'वीर पुरुष को चाहिए कि वह सदा उद्योग (पुरुषार्थ) ही करे, किसी के सामने नतमस्तक न हो, क्योंकि उद्योग करना ही पुरुषत्व है। वीरपुरुष असमय में नष्ट भले ही हो जाये, परन्तु कभी शत्रु के सामने सिर न झुकाए।' सभी मनुष्य प्रसन्नता से रहना चाहते हैं, किन्तु याद रहे प्रसन्नता का नाटक करना बहुत मुश्किल हो है। सहज मुस्कान दुर्लभ है, किन्तु असंभव नहीं है। अच्छे कामों, सफलताओं, धार्मिकविचारों से प्रसन्नता बढ़ती है, इसलिए सदा मुस्कुराइये। मुस्कराने की कोई कीमत नहीं लगती, किन्तु मुस्करा वे ही पाते हैं, जिनके चित्त प्रसन्न होते हैं, परोपकार से भरे होते हैं, पुरुषार्थ के विश्वासी होते हैं। विश्वास रखिए कि चेहरे पर खाली मुस्कराहट, वह बेशकीमती चीज है, जो आपकी स्वीकार्यता बढ़ा देती है और आपको सफलता के नजदीक ले जाती है। 'तिरुवल्लुवर' में आया है कि 'सौभाग्य का न होना किसी के लिए दोष नहीं है। समझकर सद्प्रयत्न न करना ही दोष है।' जो प्रयत्नशील है उनके लिए कुछ भी दुष्कर नहीं है। 'जॉर्ज बनार्ड शॉ' कहा करते थे तुम चीजों को देखते हो और कहते हो, ऐसा क्यों? मैं चीजों को देखता हूँ और कहता हूँ, ऐसा क्यों नहीं? पुरुषार्थ के लिए यह सकारात्मक सोच होना बहुत जरूरी है। जो नकारात्मक सोच रखते हैं वे स्वयं भी गिरते हैं और साथियों को भी गिराते हैं। यदि आप पुरुषार्थ करना चाहते हैं, तो आपको कौन रोक सकता है? चींटी जैसी कृशकाय जीव भी पहाड़ पर चढ़ जाती है। वह कितनी बार गिरती है, लेकिन अपना प्रयास नहीं छोड़ती और सफलता को प्राप्त करती है। मैंने एक मुक्तक इसी बात को लक्ष्यकर कहा कि 2 नवम्बर 2007 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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