Book Title: Jinabhashita 2007 11
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 29
________________ जिज्ञासा-समाधान पं. रतनलाल बैनाड़ा प्रश्नकर्ता- श्री आलोककुमार जैन, कलकत्ता णमो अरिहंतांण, णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं। जिज्ञासा- देवों का शरीर कैसा होता है? उनको णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्व साहूणं॥ नींद, बुढ़ापा, आलस्य आता है या नहीं? इस प्रकार इस मंत्र का असली उच्चारण है। परंतु समाधान- देवों के शरीर के संबंध में श्री 'तत्त्व | इसके प्रथम चरण के णमो अरहंताणं तथा णमो अरुहंताणं विचार सार' (रचयिता- आचार्य वसुनंदि) में इस प्रकार इस प्रकार दो तरह से भी उच्चारण प्राप्त होते हैं। ये उच्चारण कहा है | भी अर्थ की अपेक्षा निर्दोष हैं। प० आ० विद्यासागर जी चम्मं रुहिरं मंसं मेहं अद्विं तह वसा सोक्कं। महाराज ने एक बार बताया था कि आचार्य ज्ञानसागर जी सेम्म पित्तं अंतं, मुत्तं परिसं च रोमाणि॥ 270॥ | महाराज को जब णमोकार मंत्र का तीन बार उच्चारण करना णह दंत सिरहारु, लाला सेयं च णिमिस आलस्स। | होता था, तब वे एक बार 'णमो अरिहंताणं', दूसरी बार णिद्दा तण्हा य जरा, अंगे देवाण ण हु अस्थि ।। 271॥ | 'णमो अरहंताणं' तथा तीसरी बार 'णमो अरुहंताणं' बोलते सुइ अमलो वर वण्णो, देहो सुहफास गंध संपण्णो। | थे। अर्थात् ये तीनों ही उच्चारण निर्दोष हैं। वालरवितेज सरिसो, चारुसरुवो सया तरुणो॥272॥ प्रश्नकर्ता- भूपाल नाना मगदूम, भिलवडी, सांगली अणिमा महिमा लहिमा, पावइ पागम्म तह य ईसत्तं। जिज्ञासा- भगवान् पार्श्वनाथ की मूर्ति पर फण वसियत्तकामरूवं, इत्तिय हि गुणेहिं संजुत्तो।। 273॥ बनाना उचित है या नहीं? ऐसी मूर्तियाँ पूज्य मानी जायें अर्थ- देवों के शरीर में चर्म, खून, मांस, मेदा, या नहीं? अस्थि (हड्डी), चर्बी, शुक्र (वीर्य), श्लेष्मा (कफ), समाधान- वर्तमान में सभी तीर्थंकरों की मूर्तियाँ पित्त, आंत, मूत्र, मल तथा रोम नहीं होते। 2701 उपलब्ध हैं। उनमें से केवल भगवान् सुपार्श्वनाथ तथा नाखुन, शिरायें, दांत, लार, पसीना, पलकों का भगवान् पार्श्वनाथ की मूर्ति पर सर्प के फणों की रचना झपकना, आलस्य, निद्रा, प्यास, बुढ़ापा ये सब भी देवों दृष्टिगोचर होती है। अन्य सभी मूर्तियाँ पूर्ण निष्परिग्रहता के शरीर में नियम से नहीं होते हैं। 271।। या नि:संग अवस्था की होती हैं। इस विषय में वास्तविकता देवों का शरीर शुचि, निर्मल, श्रेष्ठ वर्णवाला, शुभ तो यह है कि केवलज्ञान होने से पूर्व ही समस्त उपसर्ग स्पर्श तथा गंध से सहित, प्रातः व्यालीन-सूर्य के तेज के दर होने का नियम है। अतः इन मर्तियों पर सर्प का फण समान, सुन्दर स्वरूपवाला, सदा तरुण होता है। 272। नहीं बनाना चाहिये। इसी प्रकार भगवान् बाहुबली की मूर्ति देवों का शरीर अणिमा (अणु के बराबर छोटा हो पर भी बेलें चढ़ी हुई दिखाई जाती हैं। यह मूर्ति अरिहंत जाना), महिमा (मेरु जैसा बड़ा बन जाना), लघिमा (रुई अवस्था की है, इस पर भी बेलों का अंकन नहीं होना जैसा हलका हो जाना), प्राकाम्य (इच्छित वस्तु को प्राप्त चाहिये था। इस प्रश्न के उत्तर में एक बार पू. आचार्य करना), ईशित्व (स्वामीपना होना), वशित्व (सबको वश विद्यासागर जी महाराज ने बताया था कि यद्यपि ये सर्प में करनेवाला होना), कामरूपित्व (इच्छित रूप बना लेना) के फण तथा बेलों का अंकन नहीं होना चाहिये था, परंतु इन गुणों से अर्थात् ८ प्रकार की ऋद्धियों से युक्त होता भगवान् पार्श्वनाथ एवं सुपार्श्वनाथ पर उपसर्ग हुआ था। है। 273॥ ये दोनों तीर्थंकर महान् उपसर्गविजेता हुये हैं। तथा भगवान् ऐसा दिव्यशरीर देवों का होता है। बाहुबली मुनि अवस्था में एक वर्ष तक, एक ही स्थान पर प्रश्नकर्ता- पं० जीवन्धरकुमार शास्त्री, सागर इस प्रकार कायोत्सर्ग मुद्रा से स्थित रहे कि उनके शरीर की जिज्ञासा- णमोकार मंत्र का असली उच्चारण क्या स्थिरता के कारण शरीर पर बेले भी चढ़ गई, इस प्रकार है? णमो अरिहंताणं यां णमो अरहंताणं? तपस्या की उत्कृष्टता दिखाने हेतु ऐसा अंकन किया जाता समाधान- आचार्य पुष्पदंत द्वारा श्री षट्खंडागम है। बड़े-बड़े आचार्यों ने इन मूर्तियों की प्रतिष्ठा एवं वंदना के प्रथम खण्ड के मंगलाचरण के रूप में इस महामंत्र 12 | की है। अतः इन मूर्तियों को पूज्य एवं निर्दोष मानते हुये, की रचना हई है। इस निबद्ध मंगल का वहां इस प्रकार | अरिहंत परमेष्ठी के बिम्बवत इनकी पूजा करनी चाहिये। उल्लेख है नवम्बर 2007 जिनभाषित 27 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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