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एक ऐतिहासिक प्रवचन
१०५ क्षुल्लक श्री गणेश प्रसाद जी वर्णी
निमित्त - नैमित्तिक व्यवस्था, कार्य में निमित्त उपादान की भूमिका, शुभ - उपयोग तथा अरहन्त भक्ति की उपादेयता तथा सोनगढ़ की विचारधारा के सम्बन्ध में पूज्य वर्णी जी का एक विशेष वक्तव्य
प्रस्तावना
पूज्य श्री १०५ श्री क्षु० गणेशप्रसाद जी वर्णी का प्रवचन, जो उन्होंने उदासीन आश्रम ईशरी में ता० ३१.३.५७ के मध्याह्नकाल के समय आश्रम के ब्रह्मचारी एवं ब्रह्मचारिणियों तथा विद्वानों के समक्ष किया था और जिसको रिकॉर्डिंग मशीन में भर लिया गया था, उन्हीं शब्दों में लेखरूप में यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है।
सोनगढ़ के श्री कानजी स्वामी तीर्थराज श्री सम्मेद शिखरजी की यात्रार्थ ता० ६.३.५७ को पहुँचे तथा उसी दिन पूज्य वर्णीजी से मिलने भी आये । पूज्य वर्णीजी भी ४-५ बार उनके पंडाल में गये । दिनांक १४.३.५७ को श्रीकानजी स्वामी ने श्री समयसार ग्रन्थ की आस्रव तत्त्व की गाथा पर प्रवचन किया। इस दिन के प्रवचन पर पूज्य श्री वर्णीजी ने कहा कि इस आस्रव तत्त्व के श्री कानजी स्वामी के प्रवचन में मेरे को कोई विपरीतता नहीं लगी, यह आगमोक्त
है ।
बस, फिर क्या था? इसी बात को लेकर कुछ भाइयों ने कलकत्ता, बम्बई, दिल्ली, इन्दौर आदि जगहों पर जोरों से प्रचार कर दिया कि पूज्य वर्णीजी ने श्री कानजी स्वामी की मान्यताओं को मंजूर कर लिया है। बहुत से भाई असमंजस में पड़ गये। समाज में एक भ्रांति पैदा कर दी गई, जिसका निवारण करना अत्यावश्यक समझा गया । बहुत से भाइयों ने यह भी कहा कि हम सैद्धान्तिक गूढ़ तत्त्वों को तो समझते नहीं है, हम लोगों की पूज्य वर्णीजी के प्रति श्रद्धा है । वे इस सम्बन्ध में जो कहेंगे, वह हमें मान्य है । इस कारण से भी यह आवश्यक समझा गया कि इस सम्बन्ध में पूज्य श्री वर्णीजी का स्पष्टीकरण हो जाना आवश्यक है। इसलिए ता० ३०.३.५७ को श्री मांगीलाल जी पांड्या, श्री चांदमलजी बड़जात्या, श्री इन्द्रचन्द्र पाटनी, श्रीकल्याणचन्द्रजी पाटनी, श्रीनेमीचन्द्रजी छाबड़ा और मैं एवं श्री रतनचन्द्रजी मुख्तार तथा श्री नेमीचन्द्रजी वकील सहारनपुर वाले, जो यहाँ आये हुये थे ईशरी गये और पूज्य वर्णीजी के सामने सारी परिस्थिति कह सुनाई। समाज में फैलाये जाने वाले भ्रम के निवारणार्थ रिकॉर्डिंग मशीन के सामने अपना खुलासा कर देने की प्रार्थना उनसे की गई। पूज्य वर्णीजी ने लोगों द्वारा किये जानेवाले ऐसे मिथ्याप्रचार पर आश्चर्य प्रकट किया। ता० ३१.३.५७ को दोपहर के समय अपना प्रवचन मशीन में भर लेने की स्वीकारता उन्होंने दे दी ।
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इस प्रकाशन में उनके अपने शब्दों में निमित्त- नैमित्तिक सम्बन्ध, कार्य में उपादान की योग्यता के साथ निमित्त की सहायता की आवश्यकता, शुभोपयोग एवं भगवान् की भक्ति की आवश्यकता एवं साधनता के विषय में दिगम्बर जैनागम की जो आज्ञा है उसे प्रकाशित किया गया है तथा श्री कानजी स्वामी के सम्बन्ध में भी प्रकाश डाला गया है। ज्यों का त्यों प्रकाशन होने के कारण शब्दों की पुनरावृत्ति तथा बुन्देलखंड प्रान्त की बोली में मिश्रित होने के कारण भाषा की दृष्टि से कुछ अशुद्धियाँ रहना स्वाभाविक है पर इसमें पूज्य वर्णीजी के शब्दों से एक अक्षर का भी अन्तर नहीं
है।
आशा है, मिथ्या भ्रम के निवारण में यह प्रकाशन सहायक होता हुआ सच्चे मार्ग के अवलम्बन में प्रेरक बनेगा ।
बाबूलाल जैन जमादार
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नवम्बर 2007 जिनभाषित
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