Book Title: Jinabhashita 2007 11
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 20
________________ अनेक बार उन्हें भारतयात्रा का अवसर मिला। जितनी बार । किन्तु अनेक स्थलों से प्रकाशित ग्रन्थ के फुटनोट्स में दिये वे भारत आये, उतनी ही बार अपने ज्ञान में वृद्धि करने के लिए कुछ न कुछ समेट कर अवश्य ले गये । अनेक प्रसंग ऐसे उपस्थित हुये, जबकि पंडित लोग अनार्य समझकर, उनके मंदिर प्रवेश पर रोक लगाने की कोशिश करते। लेकिन वे झट से संस्कृत का कोई श्लोक सुनाकर अपना आर्यत्व सिद्ध करने से न चूकते। आल्सडोर्फ ने अपने राजस्थान, जैसलमेर आदि की यात्राओं के रोचक वृत्तांत प्रकाशित किये हैं । हुए पाठान्तरों की सहायता से अधिक सुचारु रूप से सम्पादित किया जाना सम्भव है। अपने लेखों और निबन्धों में वे बड़े से बड़े विद्वान् की भी समुचित आलोचना करने से नहीं हिचकिचाते। उन्होंने अवसर आने पर याकोबी, पिशल, ऐडगर्टन आदि जर्मनी के सुविख्यात् विद्वानों के कथन को अनुपयुक्त ठहराया। आल्सडोर्फ ने विद्यार्थी अवस्था में जर्मन विश्वविद्यालयों में भारतीय विद्या, तुलनात्मक भाषाशास्त्र, अरबी, फारसी, आदि का अध्ययन किया। वे लायमान के सम्पर्क में आये और याकोबी से उन्होंने जैनधर्म का अध्ययन करने की अभूतपूर्व प्रेरणा प्राप्त की। यह याकोबी की प्रेरणा का ही फल था कि वे पुष्पदन्त के महापुराण नामक अपभ्रंश ग्रन्थ पर काम करने के लिए प्रवृत्त हुए जो विस्तृत भूमिका आदि के साथ १९३७ में जर्मन में प्रकाशित हुआ । आल्सडोर्फ, शूब्रिंग को अपना गुरु मानते थे। जब तक वे जीवित रहे, उनके गुरु का चित्र उनके कक्ष की शोभा बढ़ाता रहा। उन्होंने सोमप्रभसूरि के कुमारवालपडिबोह नामक अप्रभ्रंश ग्रंथ पर शोध प्रबन्ध लिख कर पी-एच०डी० प्राप्त की । १९७४ में क्लाइने श्रिफ्टेन (लघुनिबन्ध) नामक ७६२ पृष्ठों का एक ग्रन्थ ग्लाजनेप फाउण्डेशन की ओर से प्रकाशित हुआ है। जिसमें आल्सडोर्फ के लेखों भाषणों एवं समीक्षा टिप्पणियों संग्रह है। इसमें दृष्टिवादसूत्र की विषय-सूची ( मूलतः यह स्वर्गीय मुनि जिनविजयजी के अभिनन्दन ग्रन्थ के लिए लिखा गया था । यह जर्मन स्कालर्स आफ इण्डिया, जिल्द १ पृ० १-५ में भी प्रकाशित है ) के सम्बन्ध के एक महत्व पूर्ण लेख संग्रहीत है। मूडबिद्री से प्राप्त हुए षट्खंडागम साहित्य के सम्बन्ध में स्वर्गीय डॉक्टर ए० एन० उपाध्ये ने उल्लेख किया था कि कर्मसिद्धान्त की गूढ़ता के कारण पूर्व ग्रन्थों का पठन-पाठन बहुत समय तक अवछिन्न रहा जिससे वे दुष्प्राप्य हो गये। आल्सडोर्फ ने इस कथन से अपनी असहमति व्यक्त करते हुए प्रतिपादित किया कि यह बात तो श्वेताम्बरीय कर्मग्रन्थों के सम्बन्ध में भी की जा सकती है। फिर भी उनका अध्ययनअध्यापन क्यों जारी रहा और वे क्यों दुष्प्राप्य नहीं हुए । इस संग्रह के एक अन्य महत्वपूर्ण निबन्ध में आल्सडोर्फ ने 'वैताढ्य', शब्दकी व्युत्पत्ति वेदार्ध से प्रतिपादित की है : वे (य) अड्ढ = वेइअड्ढ-वेदियड्ढ = वेदार्ध । इसे उनकी विषयकी पकड़ और सूझ-बूझ के सिवाय और क्या कहा जा सकता है। तात्पर्य यह है कि आल्सडोर्फ की बात से कोई सहमत हो या नहीं, वे अपने कथन का सचोट और स-प्रमाण समर्थन करने में सक्षम थे । वे अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के कितने औरियंटियल रिसर्च पत्र-पत्रिकाओं से सम्बद्ध थे और इनमें उन्होंने विविध विषयों पर लिखे हुए कितने ही महत्वपूर्ण ग्रन्थों की समीक्षायें प्रकाशित की थीं। 'क्रिटिकल पालि डिक्शनरी' के वे प्रमुख सम्पादक थे जिसका प्रारम्भ सुप्रसिद्ध वि. ट्रेकनेर के सम्पादकत्व में हुआ था । विदेशी विद्वानों द्वारा भारतीय दर्शन एवं धर्म सम्बन्धी अभिमतों को हम इतना अधिक महत्व क्यों देते आये है? वे यथासम्भव तटस्थ रहकर किसी विषय का वस्तुगत १९५० में शूब्रिंग का निधन हो जाने पर वे हैम्बुर्ग विश्वविद्यालय में भारतीय विद्या विभाग के अध्यक्ष नियुक्त किये गये और सेवानिवृत्त होने के बाद भी अन्तिम समय तक कोई न कोई शोधकार्य करते रहे । अपने जर्मनी आवास काल में इन पंक्तियों के लेखक को आल्सडोर्फ से भेंट करने का अनेक बार अवसर मिला और हर बार उनकी अलौकिक प्रतिभा की छाप मन पर पड़ी। किसी भी विषय पर उनसे चर्चा चलाइये, चलते फिरते एक विश्वकोश की भाँति उनका ज्ञान प्रतीत होता रहा। उन्होंने भी संघदासगणि कृत वसुदेवहिंडि जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ की ओर विश्व के विद्वानों का ध्यान आकर्षित किया और इस बात की बड़े जोर से स्थापना की कि यह अभूतपूर्व रचना पैशाची प्राकृत में लिखित गुणाढ्य की नष्ट हुई बड्ढक कहा (बृहत्कथा) का जैन रूपान्तर है। उनकी वसुदेवहिंडि की निजी प्रति देखने का मुझे अवसर मिला है जो पाठान्तरों एवं जगह-जगह अंकित किए हुए नोट्स से रंगी पड़ी थी। उनका कहना था कि दुर्भाग्य से इस ग्रन्थ की अन्य कोई पांडुलिपि मिलना तो अब दुर्लभ है। 18 नवम्बर 2007 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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