Book Title: Jinabhashita 2007 11
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 19
________________ विवेचन किया। मध्ययुगीन आर्यभाषाओं के अनुपम कोष । उसकी रचनाओं की सूचना प्रकाशित करने की प्रथा है हेमचन्द्र की देशीनाममाला का भी बुहलर के साथ मिलकर, किन्तु महामना शूब्रिग यह कह गये थे कि उनकी मृत्यु पिशल ने आलोचनात्मक सम्पादन कर एक महान् कार्य के बाद उनके सम्बन्ध में कुछ न लिखा जाय। सम्पन्न किया। इन ग्रन्थों में प्राकृत एवं अपभ्रंश के ऐसे । जे० इर्टल (१८७२-१९५५) भारतीय विद्या के एक अनेकानेक शब्दों का संग्रह किया है जो शब्द क्वचित् ही | सुप्रसिद्ध विद्वान् हो गये हैं जो कथा साहित्य के विशेषज्ञ अन्यत्र उपलब्ध होते हैं। | थे। उन्होंने अपना समस्त जीवन पञ्चतन्त्र के अध्ययन के संयोग की बात है कि याकोबी और पिशल- ये लिये समर्पित कर दिया। वे जैन कथा साहित्य की ओर दोनों ही विद्वान पश्चिम जर्मनी के कील विश्वविद्यालय | विशेष रूप से आकर्षित हुए थे। "ऑन दी लिटरेचर आफ में प्रोफेसर रह चुके हैं जहाँ उन्होंने अपनी-अपनी रचनाएँ | दी श्वेताम्बर जैनाज इन गुजरात" नामक अपनी लघु किन्तु समाप्त की। अत्यन्त सारगर्भित रचना में उन्होंने जैन कथाओं की सराहना __अर्स्ट लायमान (१८५९-१९३१) बेबर के शिष्य | करते हुए लिखा है कि यदि जैन लेखक इस ओर प्रवृत्त रहे हैं। उन्होंने जैन आगमों पर लिखित नियुक्ति और चूर्णि | न हुए होते तो भारत की अनेक कथायें विलुप्त हो जाती। हेल्मथ फोन ग्लाजनेप (१८९१-१९६३) ट्यबिन्गन अब तक विद्वानों की दृष्टि से नहीं गुजरा है। वे स्ट्रॉसबर्ग | विश्वविद्यालय में धर्मों के इतिहास के प्रोफेसर रहे हैं। में अध्यापन करते थे और यहाँ की लाइब्रेरी में उन्हें इन | वे धर्म के पण्डित थे। याकोबी के प्रमुख शिष्यों में थे ग्रन्थों की पांडुलिपियों के अध्ययन करने का अवसर मिला। और उन्होंने लोकप्रिय शैली में जैनधर्म के सम्बन्ध में अनेक औपपातिकसूत्र का उन्होंने आलोचनात्मक संस्करण प्रकाशित | पुस्तकें लिखी हैं जिनके उद्धरण आज भी दिये जाते हैं। किया। कहने की आवश्यकता नहीं कि लायमान द्वारा उन्होंने डेर जैनिसगुस(दि जैनिज्म)और डिलेहरे फोम कर्मन सम्पादित प्राकृत जैन आगम साहित्य पिशल के प्राकृत | इन डेर फिलोसीफी जैनाज (दि डॉक्ट्रीन आव कर्म इन जैन भाषाओं के अध्ययन में विशेष सहायक सिद्ध हुआ। १८९७ / फिलोसीफी) नामक महत्वपूर्ण रचनाएँ प्रस्तुत की। पहली में उनका 'आवश्यक एरजेलंगेज' (आवश्यक स्टोरीज) | | पुस्तक 'जैनधर्म' के नामसे गुजराती में और दूसरी पुस्तक प्रकाशित हुआ। पर इसके केवल चार फर्मे ही छप सके। का अनुवाद अंग्रेजी तथा हिन्दी में प्रकाशित हुआ। उनकी तत्पश्चात् वे वीवरसिष्ट डी आवश्यक लिटरेचर (सर्वे | इण्डिया, ऐज सीन वाई जर्मन थिंकर्स (भारत, जर्मन विचारकों ऑफ दि आवश्यक लिटरेचर) में लगे गये जो १९३४ में | की दृष्टि में) नामक पुस्तक १९६० में प्रकाशित हुई। हैम्बुर्ग से प्रकाशित हुआ। ग्लाजनेप ने अनेक बार भारतयात्रा की और अनेक वाल्टर शूबिंग जैनधर्म के एक प्रकाण्ड पण्डित हो| विद्वानों से सम्पर्क स्थापित किया। उनके दिल्ली आगमन गये हैं जो नॉरवे के सप्रसिद्ध विद्वान स्टेनकोनो के चले | पर जैन समाज ने उनका स्वागत किया। उनकी एक निजी जाने पर हैम्बुर्ग विश्वविद्यालय में भारतीय विद्या के प्रोफेसर | | लाइब्रेरी थी जो द्वितीय विश्व युद्ध में बम-वर्षा के कारण नियुक्त हुए। उन्होंने कल्प, निशीथ और व्यवहारसूत्र नामक | जलकर ध्वस्त हो गई। छेदसूत्रों का विद्वत्तापूर्ण सम्पादन करने के अतिरिक्त लुडविग आल्सडोर्फ (१९०४-१९६८) जर्मनी के महानिशीथसूत्र पर कार्य किया तथा आचारांगसूत्र का | एक बहुश्रुत प्रतिभाशाली मनीषी थे, जिनका निधन अभी सम्पादन और ब्रटै महावीर (वर्क आव महावीर) नाम से | कुछ समय पूर्व २८ मार्च १९६८ को हुआ। उनके लिये जर्मन अनुवाद प्रकाशित किया। उनका दूसरा महत्त्वपूर्ण भारतीय विद्या कोई सीमित विषय नहीं था। इसमें जैनधर्म, उपयोगी ग्रन्थ, डी लेहरे डेर जैनाज है जो दि डॉक्ट्रीन्स आव बौद्धधर्म, वेदविद्या, अशोकीय शिलालेख, मध्यकालीन दी जैनाज के नाम से अंग्रेजी में १९३२ में दिल्ली से | भारतीय भाषायें, भारतीय साहित्य, भारतीय कला तथा प्रकाशित हुआ। इस ग्रन्थ में लेखक ने श्वेताम्बरजैन आगम | आधुनिक भारतीय इतिहास आदि का भी समावेश था। ग्रन्थों के आधार से जैनधर्म सम्बन्धी मान्यताओं का आल्सडोर्फ इलाहाबाद विश्वविद्यालय में जर्मन भाषा के प्रामाणिक विवेचन प्रस्तुत किया। जर्मनी में किसी विद्वान् अध्यापक रह चुके हैं। यहाँ रहते हुये उन्होंने संस्कृत के व्यक्ति के निधन के पश्चात् उसकी संक्षिप्त जीवनी तथा | एक गुरुजी से संस्कृत का अध्ययन किया था। उसके बाद - नवम्बर 2007 जिनभाषित 17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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