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का ज्ञानादिक विकास होता है। जितना उदय होता है उतना | रुचती हैं। ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां बंदे तद्गुणलब्धये। बडे अज्ञान रहता है और जितना ज्ञानावरणादिक कर्मका उदय | आचार्य थे, उमास्वामी। मोक्षमार्ग का निरूपण करना था, होगा उतना ही अज्ञान रहेगा। जितना ज्ञानावरणादिक कर्म | मंगलाचरण क्या करते हैंका क्षयोपशम होगा उतना ज्ञान रहेगा।
मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृतां। प्रश्न- श्री रतनचन्द्र जी मुख्तार- कानजी स्वामी ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां, वन्दे तद्गुणलब्धये॥ यह कहते हैं, महाराज, ज्ञानावरणादिक कर्म कुछ नहीं ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां, विश्वतत्त्वज्ञातारं अहं बंदे, काहे करते। अपनी योग्यता से ही ज्ञान में कमी-बेसी होती | के लाने? तद्गुण लब्धये, तद्गुणों की लब्धि के लिए। है। महाराज, ज्ञान में कमी होती है अपनी वजह से होती | तो उनमें जो भक्ति हुई, भगवान् की जो भक्ति हुई, स्तवन है, अपनी योग्यता से होती है, कानजी स्वामी यह कहते | हुआ, भगवान् का जो स्तवन हुआ तो भक्ति स्तवन वगैरह हैं। ज्ञानावरणादिक कर्म कुछ नहीं करता तो, महाराज, क्या | का वर्णन किया- क्या चीज है? 'गुणस्तोकं समुल्लंघ्य यह ठीक है?
| तद्बहुत्वकथा स्तुतिः'। वह स्तुति कहलाती है कि थोड़े उत्तर- पूज्य वर्णीजी महाराज- यह ठीक है? आप | गुण को उल्लंघन करके उसकी बहुत कथा करना, उसका ही समझो, कैसे ठीक है। यह ठीक नहीं है। चाहे कोई नाम स्तुति है। भगवान के अनन्त गण हैं। वक्तम अशक्त्वात भी कहे, हम तो कहते हैं कि अंगधारी भी कहे तो भी | उनके कथन को करने में अशक्त हैं। अनन्त गुण हैं। भक्ति ठीक नहीं है।
वह कहलाती है कि गुणों में अनुराग हो, उसका नाम भक्ति प्रश्न- बाबू सुरेन्द्रनाथ जी- महाराज, सम्यग्दृष्टि | है। भगवान के अनन्तगुण हैं उनको कहने को हम अशक्त के पूजन, दान, व्रतादिक के आचरण ये मोक्ष के कारण हैं, कह नहीं सकते। तो भी जैसे समुद्र का, कोई अमृत हैं या नहीं?
के समुद्र का अंतस्तल स्पर्श करने में असमर्थ है, अगर उत्तर- पूज्य वर्णीजी महाराज- मेरी तो यह श्रद्धा | उसे स्पर्श हो जाय तो शांति का कारण है। तो भगवान है कि सम्यग्दृष्टि के चाहे शुभोपयोग हो, चाहे अशुभोपयोग | के गुणों का वर्णन करना दूर रहा, उसका स्मरण भी हो हो, केवल नहीं होता है उसमें शुद्धोपयोग। अनन्तानुबन्धी | जाय तो हमको संसारताप की व्युच्छित्ति का कारण है। इस कषाय जाने से शुद्धोपयोग का अंश प्रकट हो जाता है। वास्ते भगवान् का जो स्तवन है वह गुणों में अनुराग है। जहाँ शुद्धोपयोग का अंश प्रकट हुआ तहाँ पूर्ण शुद्धोपयोग | गुणों में अनुराग कौन-सी कषाय को पोषण करने वाला मोक्ष का कारण है, तो अल्प शुद्धोपयोग भी मोक्ष का कारण है? जिस समय भगवान की भक्ति करोगे अनन्त ज्ञानादिक है। यानी कारणता तो उसमें आ गई, पूर्णताः आवो या न गुणों का स्मरण ही तो होगा। अनन्त ज्ञानादिक गुणों के आवो। प्रवचनसार में अमृत चन्द्र स्वामी ने लिखा है कि स्मरण होने में कौन सी कषाय की पुष्टि हई। क्या क्रोध सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र जो है यह पूर्णता को प्राप्त होते | पुष्ट हुआ, या मान पुष्ट हुआ, या माया पुष्ट हुई, या लोभ
हत सम्यग्दर्शन, ज्ञान, वीतरागचारित्र | पुष्ट हुआ? तो मेरा तो यह विश्वास है कि उन गुणों को सहित मोक्ष के ही मार्ग हैं। अतएव सरागात् अगर इनके | स्मरण करने से नियम से अरहंत को द्रव्य, गुण पर्याय अंश में जो राग मिला है तो जो राग है वह बंध का कारण | करके जो जानता है यह परोक्ष में अरहंत हैं, वह साक्षात् है। जितना शुभोपयोग है वह बंधका कारण है। और जो | अरहंत है। वह परोक्ष में वही गुण तो स्मरण कर रहा है। शुद्धोपयोग है वह निर्जरा और मोक्ष का कारण है। सम्यग्दृष्टिका | तो भगवान् की भक्ति तो सम्यग्ज्ञानी ही कर सकते हैं। शुभोपयोग सर्वथा ही बंधका कारण हो, सो बात नहीं है। मिथ्यादृष्टि नहीं। परन्तु कब तक? तो 'पंचास्तिकाय' में
प्रश्न श्री रतनचन्द्र जी मुख्तार- महाराज ! जिसे | कहा कि भगवान् की भक्ति मिथ्यादृष्टि भी करता है और मोक्षमार्ग रुचता है, उसे जिनेन्द्र देवकी भक्ति रुचती है या | सम्यग्दृष्टि भी करता है। परन्तु यह जो है, उपरितन नहीं?
गुणस्थान चढ़ने को असमर्थ है, इस वास्ते अस्थानरागादिक उत्तर- पूज्य वर्णीजी महाराज- मेरा तो विश्वास | निवर्तन अस्थान जो है कुदेवादिक, उनमें रागादिक न जाय, है कि जिसको मोक्षमार्ग रुचता है उसको जिनेन्द्रदेव की | अथवा तीव्र रागज्वर निरोधात्मा उसको प्रयोजन, कहा है भक्ति तो दूर रही, सम्यग्दृष्टिकी जो बातें हैं वह सब उसको | कि तीव्र रागज्वर मेरा चला जाय, इसलिये वह भगवान
12 नवम्बर 2007 जिनभाषित
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