Book Title: Jinabhashita 2007 11
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 2
________________ G विद्यासागर जी आचार्य श्री विद्यासागर जी के दोहे सीधे सीझे शीत हैं, शरीर बिन जीवन्त। सिद्धों को शुभ नमन हो, सिद्ध बनें श्रीमन्त॥ 10 खेल सको तो खेल लो, एक अनोखा खेल। आप खिलाड़ी आप ही, बनो खिलौना खेल॥ 11 दूर दिख रही लाल-सी, पास पहुँचते आग। अनुभव होता पास का, ज्ञान दूर का दाग। अमर उमर भर भ्रमर बन, जिन-पद में हो लीन। उन पद में पद-चाह बिन, बनने नमूं नवीन॥ 12 शिव-पथ-नेता जितमना, इन्द्रिय-जेता धीश। तथा प्रणेता शास्त्र के, जय-जय-जय जगदीश ॥ 4 सन्त पूज्य अरहन्त हो, यथाजात निर्ग्रन्थ। अन्त-हीन-गुणवन्त हो, अजेय हो जयवन्त॥ 5 यथा-काल करता गृही, कन्या का है दान। सूरि, सूरिपद का करे, त्याग जिनागम जान॥ 13 प्रतिदिन दिनकर दिन करे, फिर भी दुर्दिन आय। दिवस रात, या रात दिन, करनी का फल पाय॥ 14 खिड़की से क्यों देखता? दिखे दुखद संसार। खिड़की में अब देख ले, दिखे सुखद साकार ॥ 15 राजा ही जब ना रहा, राजनीति क्यों आज? लोकतन्त्र में क्या बची, लोकनीति की लाज॥ सार-सार दे शारदे, बनूँ विशारद धीर। सहार दे, दे, तार दे, उतार दे उस तीर ॥ बनूँ निरापद शारदे! वर दे, ना कर देर। देर खड़ा कर-जोड़ के, मन से बनूँ सुमेर ॥ 16 ज्ञानोदधि के मथन से, करूँ निजामृत-पान। पार, भवोदधि जा करूँ, निराकार का मान॥ 8 ज्ञायक बन गायक नहीं, पाना है विश्राम। लायक बन नायक नहीं, जाना है शिव-धाम ॥ वचन-सिद्धि हो नियम से, वचन-शुद्धि पल जायें। ऋद्धि-सिद्धि-परसिद्धियाँ, अनायास फल जायें। 17 सूक्ष्म वस्तु यदि न दिखे, उनका नहीं अभाव। तारा-राजी रात में, दिन में नहीं दिखाव॥ 18 दूर दुराशय से रहो, सदा सदाशय पूर। आश्रय दो धन अभय दो, आश्रय से जो दूर ॥ जीवन समझे मोल है, ना समझे तो खेल। खेल-खेल में युग गये, वहीं खिलाड़ी खेल॥ 'सूर्योदयशतक' से साभार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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