Book Title: Jinabhashita 2007 10
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 2
________________ आचार्य श्री विद्यासागर जी के दोहे हृदय मिला पर सदय ना, अदय बना चिर-काल। अदया का अब विलय हो, चाहूँ दीन-दयाल॥ 100 पुण्य कर्म अनुभाग को, नहीं घटाता भव्य। मोहकर्म की निर्जरा, करता है कर्तव्य ॥ 92 तभी मनोरथ पूर्ण हो, मनोयोग थम जाय। विद्यारथ पर रूढ़ हो, तीन लोक नम जाय॥ 93 हुआ पतन बहुबार है, पा कर के उत्थान। वही सही उत्थान है, हो न पतन-सम्मान ॥ चेतन में ना भार है, चेतन की ना छाँव। चेतन की फिर हार क्यों? भाव हुआ दुर्भाव॥ 101 चिन्ता ना परलोक की, लौकिकता से दूर। लोक-हितैषी बस बनें, सदा लोक से पूर॥ 94 सौरभ के विस्तार हो, नीरस ना रस कूप। नमूं तुम्हें तुम तम हरो, रूप दिखाओ धूप॥ 95 नहीं सर्वथा व्यर्थ है, गिरना भी परमार्थ। देख गिरे को, हम जगें, सही करें पुरुषार्थ ॥ 96 गगन-गहनता गुम गई, सागर का गहराव। हिला हिमालय दिल विभो ! देख सही ठहराव॥ 97 निरखा प्रभु को, लग रहा, बिखरा सा अघ-राज। हलका सा अब लग रहा, झलका सा कुछ आज ॥ 98 ईश दूर पर मैं सुखी, आस्था लिए अभंग। ससूत्र बालक खुश रहे, नभ में उड़ पतंग॥ स्थान एवं समय संकेत 102 रामटेक में, योग से, दूजा वर्षायोग। शान्तिनाथ की छाँव में, शोक मिटे अघ रोग॥ 103 गगन-गन्ध-गति-गोत्र का, भादों-पूनम-योग। 'पूर्णोदय' पूरण हुआ, पूर्ण करें उपयोग। अंकानां वामतो गतिः अनसार गोत्र-२, गति-५, गन्ध-२, गगन=0 भादों सुदी १५ वीर निर्वाण संवत् २५२० दिनांक १९.९.१९९४, सोमवार श्री दि.जैन अतिशयक्षेत्र शान्तिनाथ, रामटेक 'पूर्णोदयशतक' से साभार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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