Book Title: Jinabhashita 2005 07 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 4
________________ सम्पादकीय वर्तमान में नित्य देवदर्शन, पूजा-प्रक्षाल में उदासीनता एवं उसके निराकरण के उपाय देवपूजा गुरूपास्तिः, स्वाध्यायः संयमस्तपः। दानं चेति गृहस्थानां, षट्कर्माणि दिने दिने। जिनेन्द्रदेव की पूजा करना, गुरु की उपासना करना, शास्त्र-स्वाध्याय करना/कराना, इन्द्रियों पर नियंत्रण एवं प्राणिरक्षारूप संयम रखना, तप करना एवं दान देना-ये छह आवश्यक कार्य गृहस्थ को प्रतिदिन करना आवश्यक हैं। उक्त छह कार्यों में देवपूजा का प्रथम कर्तव्य के रूप में उल्लेख किया गया है। जो व्यक्ति देवपूजा करता है, वह देवदर्शन स्वाभाविक रूप से करता ही है। देवपूजा के साथ देवदर्शनका अविनाभाव है। अत: श्लोक में देवदर्शन का पृथक से उल्लेख न कर देवपूजा में देवदर्शन का अन्तर्भाव किया गया है। देवदर्शन एवं पूजा-प्रक्षाल इन दो बिन्दुओं पर पृथक-पृथक विचार करना आवश्यक है, क्योंकि वर्तमान परिस्थितियों में आज श्रावक देवपूजा करना तो भूल ही रहा है, उसके साथ देवदर्शन से भी दूर हट रहा है। इसके प्रमुख कारण इस प्रकार हैं - १. धार्मिक शिक्षा एवं संस्कारों का अभाव इस भौतिक वैज्ञानिक युग में जिस प्रकार लौकिक शिक्षा की व्यवस्था पग-पग पर उत्तम है, उसी प्रकार धार्मिक शिक्षा की व्यवस्था उसके अनुपात में एक प्रतिशत भी नहीं है। साथ में आज के माता-पिता इतने व्यस्त हो गये हैं कि प्रात: बच्चे को सोता हुआ छोड़ जाते हैं और रात्रि में जब आते हैं तो बच्चे सोते ही मिलते हैं। यदि कदाचित् अवकाश का भी दिन मिल गया, तो टीवी और अखवार उपन्यासों से फुरसत कहाँ है कि बच्चों से बात करें। यदि बात करने की फुरसत भी मिली, तब भी धार्मिक शिक्षा की बात ही नहीं। अत: बच्चों में धार्मिक संस्कार कहाँ से आयेंगे? ऐसी स्थिति में देवपूजा तो बहुत दूर है, देवदर्शन के प्रति भी रुचि नहीं आयेगी। २. आचरण में धर्म एवं नैतिकता का अभाव प्राय: यह देखा जाता है कि जिनके माता-पिता प्रतिदिन देवदर्शन/देवपूजा करते भी हैं, तो भी उनके आचरण में सदाचार एवं नैतिकता नहीं आती है। कितने ही माता-पिता देवदर्शन के उपरान्त छोटे-छोटे प्रसंगों को लेकर परिवार एवं समाज में महाभारत करते-कराते देखे जाते हैं। इसी प्रकार व्यापार में नम्बर दो का धन्धा, नौकरी में घूसखोरी, भोजन में भक्ष्याभक्ष्य का विचार नहीं, दृष्टि में विशुद्धता नहीं। देवदर्शन करनेवाले बुजुर्ग श्रावक/श्राविकाओं के द्वारा दहेज के नाम पर बहुओं के उत्पीड़न की घटनाएँ तो देवपूजा वगैरह को पाखण्ड ही सिद्ध करती हैं। आज का नेतृत्ववर्ग, चाहे श्रेष्ठी हो या पण्डित हो, जब उनकी कथनी और करनी में अन्तर रहेगा, तो आज की तार्किक पीढ़ी पर दुष्प्रभाव पडेगा और देवदर्शन के प्रति अरुचि अवश्य होगी। आज की विद्वान् पीढ़ी जब शास्त्र-गद्दी पर बैठती है, तब देवपूजा का उपदेश देती है, लेख लिखती है, परन्तु दुर्भाग्य है कि वे प्रवचनकार स्वयं प्रतिदिन देवदर्शन/ देवपूजा नहीं करते, तो श्रोता-श्रावक पर भी विपरीत असर पड़ता है। कितने ही ऐसे विद्वान् हैं जो प्रो./शिक्षक आदि विभिन्न पदों पर हैं, ही ऐसे विद्वान हैं जो प्रो./शिक्षक आदि विभिन्न पदों पर हैं. वे पयर्षण-पर्वो पर प्रवचनों में जाते हैं. परन्त पूजन नहीं करते। यही कारण है कि वर्तमान पीढी पर असर नहीं पड़ता। इसी प्रकार मंदिरों के मंत्री/अध्यक्ष /ट्रस्टी /नेतृत्ववर्ग, चुनाव में तिकड़म लगाकर मन्दिरों के चुनाव जीत लेते हैं. परन्त न तो नित्य देवदर्शन करते हैं और न ही पजन । स्वाध्याय तो बहत दर रहता है । इससे यह हानि होती है कि जो प्रतिदिन देवदर्शन पूजाप्रक्षाल करते हैं, वे व्यक्ति व्यवस्था से दूर होते हैं और मंदिरों में अव्यवस्था हो जाती है । ३. भावात्मक जैनधर्म की व्याख्या इस समय कुछ विद्वान् एवं प्रबुद्ध प्रशिक्षित श्रावकों द्वारा सामान्य प्रवचनों में प्राय: यह कहा जाता है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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