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श्रुतपंचमी पर्व : श्रुतदेवी और हमारे कर्त्तव्य
ब्र. संदीप 'सरल' भगवान ऋषभदेव के तीर्थकाल से भगवान महावीर | ३. क्रोधादि कषायों की मंदता स्वाध्याय से प्राप्त होती • के तीर्थकाल तक श्रुतज्ञान की अविरल धारा चलती रही। | है।
भगवान महावीर के मोक्षगमन पश्चात् ६८३ वर्ष तक श्रुत ४. पांचों इन्द्रियों के विषयों में जाते हए मन को को लिपिबद्ध करने का कार्य प्रारम्भ नहीं हुआ था। आ. | स्वाध्याय से ही रोका जाता है। धरसेन जी ने इस दिशा में प्रयत्न करके सुयोग्य मुनिद्वय
५. हिंसादिपापों से निवृत्ति एवं हेयोपादेय का ज्ञान मुनिश्री १०८ पुष्पदंत जी एवं मुनिश्री १०८ भूतबलि जी
स्वाध्याय से ही हुआ करता है। महाराज को आ. परम्परा से प्राप्त ज्ञान प्रदान किया। भूतबली
६. स्वाध्याय के माध्यम से व्यक्ति परमात्मा और जी ने ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी को षट्खण्डागम की रचना पूर्णकर
| परलोक से अनायास सम्पर्क स्थापित कर लेता है। चतुर्विध संघ के समक्ष श्रुतज्ञान की पूजा की थी। तबसे यह तिथि श्रुतपंचमी के रूप में जानी जाती है।
७. जैसे एक-एक पैसे के संचय से धन की वृद्धि
होती है, उसी प्रकार एक-एक सद्विचार का संग्रह करने से श्रुतदेवी और हमारे कर्त्तव्य : आत्मोत्थान में सहायक
ज्ञानकोष की वृद्धि होने से पाण्डित्य की प्राप्ति होती है। देव-शास्त्र और गुरु के मध्य शास्त्रों का महत्त्वपूर्ण स्थान हुआ करता है। श्रुत की भक्ति करने से सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति
८. केवल धन/ऐश्वर्य से कोई सुखी नहीं हो सकता, हुआ करती है और सद्ज्ञान/भेदविज्ञान से जीव अपने लक्ष्य
अपितु धर्म व तत्त्वज्ञान से व्यक्ति संतोषप्रद जीवन शैली को प्राप्त कर लेता है। हमारे आचार्यों ने ज्ञानाराधना हेतु
अपनाकर सुखी बन सकता है। स्वाध्याय की प्रबल प्रेरणा देते हुए स्वाध्याय को परम तप
९. स्वाध्याय करनेवाला व्यक्ति अधिकाधिक ज्ञान कहा है। इतना ही नहीं, श्रावक एवं श्रमणों की षट्आवश्यक
प्राप्तकर आनंद को प्राप्त होता है। भावनाओं में अभीक्ष्णज्ञानोपयोगी भावना निरन्तर स्वाध्याय १०. आभ्यन्तर चक्षुओं को खोलने के लिए स्वाध्याय की प्रेरणा हमें दिया करती है।
एक अंजनशलाका है। स्वाध्याय क्या, कैसे, क्यों : शास्त्रों का पठन- ११. स्वाध्यायशील मानव के अन्दर प्रशम, संवेग, पाठन करना व्यवहार स्वाध्याय कहलाता है, तो स्व-आत्मा | अनुकम्पा आदि उदारगुणों की पूंजी निरन्तर बढ़ती रहती है। के निकट वास करना अथवा आत्मा का अध्ययन करना |
१२. स्वाध्याय संसार की नश्वर आकुलता से ऊपर निश्चय स्वाध्याय कहलाता है।
उठने के लिए अनुपम नसैनी के समान है। प्रतिदिन नियमित रूप से विनयपूर्वक क्रमबद्ध तरीके १३. स्वाध्यायशील व्यक्ति को लोक में यश-सम्मान से स्वाध्याय करना चाहिए। स्वाध्याय क्यों करना चाहिए? | भी प्राप्त होता है। इस प्रश्न का उत्तर देते हुए आ. पूज्यपाद स्वामी जी सर्वार्थसिद्धि
१४. स्वाध्याय एक शुभक्रिया है, इसके माध्यम से ग्रन्थ में लिखते हैं कि स्वाध्याय करने से प्रज्ञातिशय, प्रशस्त
अतिशय पुण्य का आस्रव-बंध होता है। अध्यवसाय, परमसंवेग, तपवृद्धि एवं अतिचारों में विशुद्धि
१५. स्वाध्याय करने से जीव परम्परा से आत्मानुभवबढा करती है। शास्त्राभ्यास की अपूर्व महिमा है जैसे
दशा को प्राप्त होता है। १. मैं कौन हूँ? जन्म, मरण क्या है? संसार में मेरा
स्वाध्याय की महिमा वचनातीत है। हमें प्रमाद का क्या संबंध है इत्यादि रहस्यात्मक प्रश्न स्वाध्यायशील व्यक्ति
त्यागकर निरन्तर स्वाध्याय में ही अधिकाधिक समय देना के मन में उठा करते हैं।
चाहिए। श्रुतपंचमी पर हमें स्वाध्याय करने का नियम लेकर २. नई दिशा, नये विचार, नये शोध और वैदुष्य के
स्वाध्याय की परम्परा को जीवंत रखना चाहिये। अवसर निरन्तर स्वाध्याय करने वालों को प्राप्त होते हैं।
- जुलाई 2005 जिनभाषित 9
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