Book Title: Jinabhashita 2005 07
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 25
________________ जिज्ञासा-समाधान पं. रतनलाल बैनाड़ा प्रश्नकर्ता : श्री सतीश जैन,पिपरई और वे ही प्रथम गणधर बने।) जिज्ञासा : श्री आदिपुराण २४ /१६८ के अनुसार | इसप्रकार भगवान् आदिनाथ के समक्ष की चर्चा जब बिना गणधर की उपस्थिति के,भरत जी के पूछने पर | देखकर अब भगवान वर्धमान के समक्ष की चर्चा पर विचार दिव्यध्वनि खिर गई थी, तब फिर भगवान महावीर के करते हैं : श्री वीरवर्धमान चरित (श्री सकलकीर्ति विरचित) समवशरण में बिना गणधर के क्यों नहीं खिरी? | में १५/८०-८२ में इसप्रकार कहा है, 'तब इन्द्र ने, बार-बार समाधान : तीर्थंकरों की दिव्यध्वनि गणधर का अभाव | प्रार्थना करने पर भी दिव्यध्वनि न होने पर अपने अवधिज्ञान होने से नहीं खिरती है। श्री धवला पुस्तक ९, पृष्ठ १२० पर से गणधर पद का आचरण करने में असमर्थ मुनिवृन्द को कहा है कि, 'गणधर का अभाव होने से दिव्यध्वनि की जानकर विचार किया कि , अहो, इन मुनिश्वरों के मध्य में प्रवृत्ति नहीं होती है।' अब प्रश्न है कि तो फिर गणधर प्रभु ऐसा कोई भी मुनीन्द्र नहीं है, जो कि अर्हत् मुख कमल से कौन और कैसे बनते हैं? इसके समाधान में कषायपाहुड़ निर्गत सर्व तत्त्वार्थ संचय को एक बार सुनकर द्वादशांग श्रुत १/७६ में इसप्रकार कहा है-'सगपादमूलम्मि पडिवण्णमहव्वयं की संपूर्ण रचना को शीघ्रकर सके और गणधर के पद के मोत्तूण अण्णमुद्दिस्सिय दिव्वज्झुणी किण्ण पयट्टदे। योग्य हो(वास्तविकता यह थी जिसने भगवान् के पादमूल में साहावियादो। ही महाव्रत स्वीकार किया है, उसके ही निमित्त से उसको प्रश्न : जिसने अपने पादमूल में महाव्रत स्वीकार सम्बोधनार्थ प्रथम दिव्यध्वनि होती है । पूर्व दीक्षित मुनिराज किया है, ऐसे पुरुष को छोड़कर अन्य के निमित्त से दिव्यध्वनि गणधर नहीं बनते।)तब वह गौतम ब्राह्मण के पास गया और क्यों नहीं खिरती ? उनको समवशरण में लाया। समवशरण में प्रविष्ट होकर वहाँ विराजमान भगवान् वर्धमान को उस द्विजोत्तम गौतम ने उत्तर : ऐसा ही स्वभाव है ।' देखा और श्री वीर वर्धमान चरित्र अधिकार-१६, श्लोक नं० भावार्थ : भगवान की दिव्यध्वनि सर्वप्रथम उस व्यक्ति २ से २५ तक के अनुसार भगवान वर्धमान से विभिन्न प्रश्न की समवशरण में उपस्थिति होने पर होती है, जो अभी तो पूछते हुये दिव्यध्वनि के द्वारा उपदेश देने की प्रार्थना की।(यहाँ अव्रती अवस्था में है, परन्तु भगवान का उपदेश सुनकर, महाव्रत भी गणधर बनने की योग्यता रखने वाले व्यक्ति की अव्रती स्वीकार करके, गणधर बनने की योग्यता रखता हो। इसको अवस्था में उपस्थित हो जाने पर प्रथम दिव्यध्वनि हुई। तब अब प्रथमानुयोग से देखते हैं। आदिपुराण २४/७९ में कहा है भगवान ने दिव्यध्वनि से उपदेश देना प्रारम्भ किया। ' कि महाराजा भरत ने प्रार्थना की कि हे भगवन, तत्त्वों का पश्चात इसी ग्रन्थ के अधिकार-१८, श्लोक नं० १४८-१५० विस्तार. मार्ग और उसका फल, मैं आपसे यह सब सुनना में कहा है कि, "दिव्यध्वनि सुनकर मिथ्यात्व को छोड़कर चाहता हूँ। महाराजा भरत का प्रश्न समाप्त होने पर भगवान प्रबोध को प्राप्त उस गौतम ने अपने दोनों भाईयों तथा ५०० की प्रथम दिव्यध्वनि खिरी। (यहाँ यह स्पष्ट है कि उस समय भरत के छोटे भाई वृषभसेन अव्रती अवस्था में | छात्रों के साथ तुरन्त जिनमुद्रा धारण कर ली और प्रथम गणधर कहलाये।' उपस्थित थे।) आदिपुराण २४/१७१-१७२ में कहा है, 'उसी समय जो पुरिमताल नगर का स्वामी था, भरत का छोटा भाई उपरोक्त दोनों प्रकरणों से यह स्पष्ट होता है कि भगवान् था, पुण्यवान,विद्वान.शरवीर.पवित्र धीर. स्वाभिमान करने वालों की प्रथम दिव्यध्वनि तो गणधर की अनुपस्थिति में,परन्तु में श्रेष्ठ, श्रीमान्,बुद्धि के पार को प्राप्त अतिशय बुद्धिमान और | गणधर बनने की योग्यता रखने वाले व्यक्ति की उपस्थिति जितेन्द्रिय था तथा जिसका नाम वृषभसेन था, उसने भगवान् | | में ही होती है। उसके होने पर वह व्यक्ति वहीं दीक्षा धारण के समीप सम्बोध पाकर दीक्षा धारण की और उनका पहला कर प्रथम गणधर पद को प्राप्त कर लेते हैं। इसीलिए जब गणधर हो गया ।' (यहाँ यह स्पष्ट है कि भगवान की प्रथम तक गणधर बनने की योग्यता रखने वाले गौतम ब्राह्मण देशना होने पर समवशरण में अव्रती अवस्था में उपस्थित | समवशरण में नहीं आए तब तक दिव्यध्वनि नहीं खिरी। वृषभसेन ने, भगवान के पादमूल में महाव्रत स्वीकार किया प्रश्नकर्ता : श्री पद्मकुमार जैन, बरहन जुलाई 2005 जिनभाषित 23 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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