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४. आहार देने की योग्यता
है. राजा मधु ने वटपर नगर में अपने अन्तर्गत राज्य करने कुछ लोग ऐषणा समिति के अन्तर्गत पिण्ड शुद्धि वाले राजा वीरसेन की चन्द्राभा नामक रानी को छलपूर्वक अधिकार का आश्रय लेकर विभिन्न जातियों में वैवाहिक | अपने यहाँ बुला लिया। बाद में उसके साथ शादी भी कर संबंध करने वालों को अयोग्य मानते हैं। जबकि मुलाचार | ली। बाद में उसने अपनी रानी चन्द्राभा के साथ मनिराज को आदि किसी भी ग्रंथ में दायक आदि दोषों के अन्तर्गत | आहार देकर पञ्चाश्चर्य प्राप्त किये। अन्तर्जातीय विवाह करने वालों को कहीं भी गलत नहीं ग- आराधना कथाकोष की ६६वीं कथा के अनुसार, बताया गया है। श्रीमूलाचार की अनगार भावना में तो स्पष्ट | अग्नि नामक राजा ने अपनी कृतिका नामक पुत्री पर आसक्त कहा है -
होकर उससे संबंध स्थापित किया और उससे उत्पन्न कार्तिकेय अण्णादमणुण्णादं भिक्खं णिच्चुच्चमज्झिमकुलेसु। नामक पुत्र ने एक मुनिराज से मुनि दीक्षा ग्रहण की। ये घरपंतीहिं हिंडति य मोणेण मुणी समादिति ॥८१५ ॥ | कातिकय नामक मुनि महान् प्रासद्ध
कार्तिकेय नामक मुनि महान् प्रसिद्ध आचार्य हुए हैं। अर्थ : वे साधु नीच, उच्च या मध्यम कुलों में गृह घ- सुदर्शनोदय नामक सेठ सुदर्शन की कथा के पंक्ति से मौन पर्वक भ्रमण करते हैं और अजात तथा अनजात | अनुसार, सेठ सुदर्शन ने मुनि दीक्षा धारण कर ली थी। एक भिक्षा को ग्रहण करते हैं।
वेश्या ने उनकी सुन्दरता पर रीझकर उनका अपने निवास यही कारण है कि मूलाचार आदि में पिण्डशुद्धि आदि |
स्थान पर अपहरण करा लिया। सभी काम चेष्टा करने के
बाद भी जब वह हार गई तब उसने विरक्त होकर उन्हीं मुनि प्रकरण के अन्तर्गत किसी गृहस्थ को जाति या कुल के |
सदर्शन से आर्यिका दीक्षा धारण की । आधार पर आहार देने के लिए अपात्र नहीं ठहराकर अन्य | सुपर कारणों से उसे अपात्र ठहराया है। इन सब आगम प्रमाणों पर उपरोक्त कथानकों पर यदि पूर्वाग्रह छोड़कर विचार पक्ष छोडकर यदि विचार किया जाये तो अन्तर्जातीय विवाह किया जाये तो वर्तमान सज्जातित्त्व संबंधी सभी मानी जाने करन वाला का साधु के लिए आहार देने से कैसे वंचित | वाली परिभाषाएं चूर-चूर हो जाती हैं। जैन शास्त्रों में तो किया जा सकता है। जैन शास्त्र तो अन्य वर्ण वालों को भी,
धर्माचरण के संबंध में उपरोक्त कथानकों के अनुसार अत्यंत योग्य आचरण होने पर 'उच्च वर्ण वाला' स्वीकार करते हैं।।
उदारता वर्णित है। अत: हमें सज्जातित्त्व की वर्तमान परिभाषा जैसे सागारधर्मामृत में कहा है 'अध्याय २/२२'
पर अच्छी प्रकार विचार करना चाहिए। शद्रोप्यपस्कराचारवपः शयास्त तादशः।। ६. क्या अन्तर्जातीय विवाहवालों को आहार देने से जात्या हीनोऽपिकालादिलब्धौ ह्यात्मास्ति धर्मभाक्॥
वंचित करना उचित है अर्थ : कोई शूद्र भी, यदि उसका आसन, वस्त्र,
इस संबंध में यदि विचार करें तो हमें आगम के आचार और शरीर शुद्ध है तो वह ब्राह्मणादि के समान है। |
निम्न प्रमाणों पर अवश्य ध्यान देना होगा। तथा जाति से हीन (नीच)होकर भी कालादि-लब्धि पाकर
जातिदेहाश्रिता दष्टा देह एव आत्मनो भवः। वह धर्मात्मा हो जाता है।
न मुच्यन्ते भवात्तस्मात्ते ये जातिकृताग्रहः ॥८८॥ ५. कुछ शास्त्रीय उदाहरण
जाति-लिङ्गविकल्पेन येषां च समयाग्रहः । क- श्री हरिवंशपुराण सर्ग १४-१५ में एक कथा ।
तेऽपि न प्राप्नुवन्त्येव परमं पदमात्मनः ।। ८९॥ आती है,जिसके अन्तर्गत कौशाम्बी के राजा सुमुख ने आसक्त अर्थ : जाति देह के आश्रय से देखी गई है और होकर वीरक नामक वैश्य की पत्नी वनमाला को अपने | आत्मा का संसार शरीर ही है, इसलिए जो जातिकृत आग्रह महल में बुलाकर उसके साथ शादी कर ली। एक दिन राजा | से युक्त हैं,वे संसार से मुक्त नहीं होते। ८८ ॥ ब्राह्मणादि सुमुख और वनमाला ने तपोनिधान वरधर्म नामक मुनिराज | जाति और जटाधारण आदि लिंग के विकल्परुप से जिनका को भक्तिभाव से आहार कराया, जिस उत्तम दान के | धर्म में आग्रह है वे भी आत्मा के परम पद को नहीं प्राप्त होते फलस्वरुप वे मरकर विजयार्ध पर्वत पर विद्याधर --विद्याधरी हैं ॥ ८ ॥ हुए।
उपरोक्त प्रमाण यह स्पष्ट कर रहा है कि जाति संबंधी ख- श्री हरिवंशपुराण सर्ग ४३ में एक कथा इसप्रकार | आग्रह को जैनधर्म में कोई स्थान नहीं है। फिर भी यदि कोई
जुलाई 2005 जिनभाषित 21
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