Book Title: Jinabhashita 2005 07
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 35
________________ "हे प्रभु कब मैं सो मुनि बन हूँ" ० मुनि श्री प्रणम्यसागर जी बोध गिरि, मसान, गुह कोटर मज्झे, बिन मालिक बिन शोधी सज्जे । दोष रहित वसती में बस कर, निज मस्ती में मस्त हि रह हूँ ॥ हे प्रभु कब मैं सो मुनि बन हूँ। • धरमचंद वाझल्य दो अनेक वा एक अकेले, सब तीरथ सब मुनि मन मेले । शुद्ध पवन सम विहर विहर कर, विरह राग से कबहूँ न सनहूँ ॥ हे प्रभु कब मैं सो मुनि बन हूँ। तुम्हारा क्रोध कम हो गया है, यह परिवर्तन अब मुझे सुखद लगता है। बाधाएँ दूर हो रही हैं, कार्य सम्पन्न सहज हो गया है। कब तक तुम इस तरह दूसरों को रहोगे आँकते क्यों नहीं अपने ही अंतर में झाँकते आरंभ तो करो - स्वयं के द्वारा स्वयं को देखना तब तुम्हें स्वयं ही अपनी अनेक निरर्थकताओं का सहज ही बोध हो जाएगा। ज्यों गो चरने वन में जावे, त्यों गोचर को वन से आवे । पर परिचय में चित न लगाकर, चित चिन्मय से बतियाँ कर हूँ॥ हे प्रभु कब मैं सो मुनि बन हूँ। बी/92, शाहपुरा, भोपाल चार मास इक ठाण हि ठाणे, सह हों धूप मेघ औ जाड़े। दया क्षमा सब जीवन सौ धरि, ध्यान अगनि से कर्मन दह हूँ ॥ हे प्रभु कब मैं सो मुनि बन हूँ। (आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज के शिष्य) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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