Book Title: Jinabhashita 2005 07
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 16
________________ । सेवन की सलाह क्यों दी गयी है? इन मंत्रों को पढ़ने पर प्रश्न उठता है कि पीर-फकीरों को भजनेवाले जैनसमाज को जैनधर्म की ओर मोड़ने के लिए मंत्र-तंत्रों का प्रयोग कहाँ तक उचित है? क्या मुनियों को इतने घिनौने, हिंसात्मक मंत्र-तंत्र मंजूर हैं? इसका परिणाम क्या होगा? इस एक ग्रंथ के पन्ने पन्ने पर आक्षेपार्ह वचन, मंत्र - तंत्र भरे हैं, तो सब पुस्तकों में अगणित आक्षेपार्ह मंत्र मिल सकते हैं। सच्चे देव-शास्त्र-गुरु के अध्ययन-स्वाध्याय से वंचित ९०% जैन इस प्रकार के ग्रंथों को प्रामाणिक आगमवचन समझकर श्रद्धा से स्वीकार करते देखे गये हैं, क्योंकि आचार्य पदस्थ मुनियों द्वारा संकलित, लिखित हैं। यह स्थिति बड़ी गंभीर है। कई अनभ्यासी इसका गलत उपयोग कर मूढ़ लोगों को फँसा रहे हैं। मिथ्यात्व की तेजी से बढ़ती इस आँधी को इसप्रकार के मंत्र-तंत्र-विज्ञान ने और भड़काया है। अगर इसे सोच-समझकर नहीं रोका गया तो ९०% स्वाध्याय से वंचित जैनसमाज द्वारा स्वीकृत मंत्र-तंत्रवाद जैनधर्म को, सच्चे देव-शास्त्र-गुरु के आत्मवाद की पावनता को ले डूबेगा । यह विचारधारा आयी कहाँ से ? भ. महावीर के बाद ६८३ वर्षों तक जिनवाणी की पवित्र गंगा केवल मौखिक रूप से बहती रही। धीरे-धीरे आचार्यपरंपरा से बहते - बहते उसकी धारा क्षीण हो गयी। अन्य जैनपंथियों ने जैसा भी मिला उसका संकलन कर लिया । १२ अंगों में दृष्टिवाद अंग में १४ पूर्वों में विद्यानुवादपूर्व का नाम आता है। परंतु कोई पाठी न बचने के कारण अनुपलब्ध है। केवल उसमें समाविष्ट विषय और श्लोकों की संख्या आदि की जानकारी मात्र उपलब्ध है। इसलिए अन्य पंथियों द्वारा संकलित ऐसे किसी ग्रंथ को जिनागम के ठोस आधार के अभाव में दिगम्बर जैन पूर्वाचार्यों ने कभी मान्यता नहीं दी। अब कोई तत्त्वमर्म अनभिज्ञ, स्वार्थ के लिए या अज्ञानतावश इसे संकलित प्रकाशित करे और बिना संशोधन किये बिना सिद्धांतशास्त्रों से उसका मूल्यांकन/तुलना किये प्रकाशन करे, तो जिनवाणी की शुद्ध, सात्विक, पवित्र धारा को कलंकित होना पड़ेगा। क्योंकि इतने घिनौने वचन जैन सिद्धांतों के कभी नहीं हो सकते। अगर आ. कुंदकुंद पंचपरमागम नहीं लिखते तो मिथ्यात्व का निरंकुश शासन और भी चलता रहता। पर आप तो कुंदकुंद के ग्रंथ निकालकर फेंकने को कहते हैं । 1 इस दिशा में समाज के सामने प्रस्तुत कुछ प्रश्न १. क्या साधु के २८ मूलगुणों में यह कार्य बैठता है? 14 जुलाई 2005 जिनभाषित Jain Education International मुनियों को ऐसे शास्त्रनिषिद्ध ग्रंथों का संकलन, रचना, प्रकाशन आदि कार्य तथा मंत्र-तंत्र के प्रयोग करने चाहिए? २. क्या सुबुद्ध श्रावकों को मंत्र-तंत्र, प्रश्न, भविष्य आदि पूछने के लिए मुनियों के पास जाना चाहिए? ३. क्या ऐसे मंत्र-तंत्र वाद को फैलाने वाले मुनियों से चर्चा कर उन्हें सही मार्ग में मोड़ने का काम शास्त्री पंडित, विद्वानों को नहीं करना चाहिए? जिससे मुनिधर्म की रक्षा हो? अगर मुनि न मानें तो उनका खुलकर विरोध नहीं करना चाहिए? धर्म बड़ा है या व्यक्ति ? ४. क्या जैन समाज में पनपती यह अंधश्रद्धा हमें ठीक दिशा में ले जा रही है ? इस दिशा में हमें किस तरह काम लेना चाहिए? ५. क्या मंत्र - तंत्र से सच्चे देव - शास्त्र - गुरु का तथा जैन सिद्धान्तों का श्रद्धान, अध्ययन का भाव होता है? क्या यह नाथपंथी, हठवादी साधुओं की असत् प्रवृतियों का समर्थन नहीं है ? ६. क्या इन मंत्रों द्वारा आत्मकल्याण होता है ? मंत्रतंत्रों का आश्रय लेना क्या कर्मवाद के शाश्वत मूल्यों को झुठलाना मात्र नहीं है? ७. क्या ये मंत्र तंत्र अहिंसा, क्षमा, समता, दया तथा आत्मलीनता इत्यादि सत् - शुभ भावों के अनुकूल एवं वीतरागता के पोषक हैं? ८. क्या सुबुद्ध श्रावकों को, मुनियों को ऐसे ग्रंथ घर से, मंदिर से निकालकर पानी में डुबोकर नष्ट नहीं कर देने चाहिए? जिससे आगे आनेवाली पीढ़ी को असत् प्रवृत्तियों से रोका जा सके, भविष्य में ऐसी कृति जन्म न ले, न ये प्रमाण शेष रहें तथा पवित्र जिनवाणी के पवित्र प्रवाह में घुस आये गंदे नालों का नामोनिशान मिट सके । ९. क्या तथाकथित मुनिनिंदा, शास्त्रनिंदा के मिथ्या भय से हम विकृति या मिथ्यात्व फैलाने / पनपाने का दोष उठायें ? १०. क्या इतने घिनौने वचन सिद्धान्तशास्त्रों के हो सकते हैं ? ११. गणधराचार्य कुंथूसागर जी महाराज, आचार्य श्री गुणधरनंदी जी महाराज तथा उनके संघ के सभी आचार्य, मुनिगणों के चरणों में शत शत वंदन कर मेरा एक विनम्र प्रार्थनाप्रश्न सादर निवेदित है कि वे इस तरह कब तक आ. कुंदकुंद की वाणी को मंदिर से निकालते रहेंगे और वीतरागता को गड्ढे में डालनेवाले इन ग्रंथों का लेखन, संकलन, प्रकाशन आदि कार्य कर ऐसे मंत्र-तंत्रों को घर-घर में और For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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