Book Title: Jinabhashita 2005 07
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 19
________________ भक्तामर-अनुष्ठान : कितना सार्थक ? ब्र. जयकुमार 'निशान्त' भक्तामरस्तोत्र सर्वमान्य एवं अत्यन्त लोकप्रिय भक्ति । से आराधक उस मंत्रशक्ति को प्राप्त नहीं करता जो मूल स्तोत्र है, जिसका कारण है सरल बोधगम्य भाषा एवं यंत्र | संस्कृत पाठ से होती है। वर्तमान में तो आचार्य सोमसेन की तथा साधना-विधिपूर्वक अनुष्ठान से आधि-व्याधि दूर होने | पूजा और आचार्य मानतुंग स्वामी के मूलपाठ को भी अलग का असीम विश्वास। प्रत्येक छंद विशेष प्रयोजन को दर्शाते | करके केवल पद्यानुवाद से ही पूजाविधि करके विधान हैं। इनका भक्तिभावपूर्वक सस्वर शुद्ध पाठ करने से | किया जाने लगा है, विचारणीय यह है क्या फल मिलेगा इस असातोवेदनीय का क्षय एवं सातारूप संक्रमण होने से | अधूरे अनुष्ठान से? मानसिक शांति एवं आरोग्य प्राप्त होता है। यही कारण है वर्तमान में चमत्कारों का विशेष आकर्षण है या कहें कि प्रत्येक श्रावक इसका पाठ नियमित रूप से करता है। | कि कामना के वशीभूत होकर धर्माचरण की प्रक्रिया बलवती भक्तामर स्तोत्र के लगभग १५० पद्यानुवाद उपलब्ध हो गयी है। आज व्रतोपवास, पूजा-पाठ, अनुष्ठान, भक्तामर होते हैं। यह एकमात्र स्तोत्र है जिसका प्राकृत, हिन्दी, गुजराती, | पाठ, यहाँ तक कि अष्टाह्निका पर्व, पंचकल्याणक जैसे अनुष्ठान मराठी, बंगला, उड़िया, राजस्थानी, अवधी, तमिल, तेलगु, | भी प्रदर्शन के माध्यम बन गये हैं। प्रदर्शन की होड़ में हम कन्नड़, मलयालम के साथ उर्दू, फारसी, जर्मनी एवं अंग्रेजी | मूल क्रियाविधि भी भूल गये हैं। भाषाओं में अनुवाद किया गया है। विशिष्ट अनुष्ठान शुभ तिथि, वार, नक्षत्र एवं लग्न में भक्तामर स्तोत्र की रचना आचार्य मानतुंग ने राजा जपसंकल्प, पात्रशुद्धि, सकलीकरण, स्थलशुद्धि, मण्डप भोज द्वारा ४८ तालों में बंद कारागृह में की थी। भक्ति की प्रतिष्ठा, अभिषेक, शांतिधारा (प्रासुक जल से) पूजन विधान शक्ति से ताले टूटना एवं आचार्यश्री का बाहर विराजमान में प्रयुक्त सामग्री का शोधन शुद्ध ताजा घी, धुले धोती दुपट्टे, मिलना भक्ति का चमत्कार था, जिससे जिनशासन की | साड़ी आदि अखण्ड वस्त्र (पेंट शर्ट, पायजामा, सलवार अत्यधिक प्रभावना हुई और राजाभोज ने मिथ्यात्व छोड़कर | | सूट आदि नहीं) एवं चटाई का प्रयोग ही किया जाना चाहिए। जैनधर्म स्वीकार कर आत्मकल्याण किया। रात्रि भोजन का त्याग, ब्रह्मचर्य का नियम, अभक्ष्य पदार्थों भक्तामर विधान के मूल रचनाकार आचार्य सोमसेन | | का त्याग, संयम साधना, खान-पान की शुद्धि के साथ ही स्वामी हैं। इन्हीं के द्वारा रचित पाठ द्वारा अनुष्ठानविधि एवं | अनुष्ठानविधि फलीभूत होती है। उतावली या शार्टकट क्रिया भक्तामरविधान किया जाता है, जो तीन वलय में ८, १६ एवं | से कुछ भी मिलना संभव नहीं है। क्रियाविधि की अनभिज्ञता २४ काव्यों में वर्णित है। प्रत्येक वलय का अलग-अलग में श्रावक को जितना लाभ नहीं होता. उससे अधिक हानि महार्घ्य है। स्थापना पूजा के साथ जयमाला तथा ४८ ऋद्धिमंत्र | उठाना पड़ती है। के अर्घ्य वर्णित हैं। प्रायः देखा यह जाता है कि पाठ करने वाले भाईयहाँ ध्यान देने योग्य है कि आचार्य सोमसेन के पाठ | बहन मनशुद्धि, वचनशुद्धि एवं कायशुद्धि की जानकारी न के प्रचलित न होने के कारण उनकी पूजाविधि को ग्रहण | होने के कारण जिन वस्त्रों से लघुशंकादि, भोजन एवं गृहस्थ करके उनके छंदों के स्थान पर भक्तामर स्तोत्र के छंद जोड़कर | कार्य करते हैं, उन्हीं वस्त्रों को पहिने हुए पाठ में सम्मलित मिश्रित विधान का निर्माण किया गया है, जो विशेष अनुष्ठान | हो जाते हैं। जबकि धोबी के यहाँ धुले हुए, ड्रायक्लीनिंग एवं साधना की दृष्टि से सर्वथा अनुचित है। किए हुए फैशनेबिल वस्त्र, लिपिस्टिक, नैल पॉलिस, स्प्रे मूल संस्कृत पाठ मंत्र-रूप होने के कारण उसके | प्रसाधन तथा कोशा एवं सिल्क के वस्त्रों का उपयोग अनुष्ठान विधिवत् पाठ से मानसिक शांति, आधि-व्याधि का शमन, । | में नहीं करना चाहिए। रात्रि जागरण हेतु नवयुवक चाय, पर्यावरण सृद्धि, नियमित रूप से होती है। परन्तु पद्यानुवाद | कॉफी, दूध, पान मसालों का भी प्रयोग करते हैं । टेंट हाउस जुलाई 2005 जिनभाषित 17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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