Book Title: Jinabhashita 2005 07
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 8
________________ पाँच समिति, पाँच इन्द्रियों के विषयों का निरोध, सात विशेष । है।। गुण और छह आवश्यक। इनमें से बाईस मूलगुणों का विचार | ८. संयम के योग्य क्षेत्र, निर्जन वन, गिरि गुफा या पूर्व में कर आये हैं। छह आवश्यक ये हैं : सामायिक, | चैत्यालय आदि में निवास करता है। चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और व्युत्सर्ग।। ९. अन्य साधुओं की आवश्यकतानुसार वैयावृत्य साधु इनका भी उत्तम रीति से पालन करता है। जीवन | करता है। मरण, लाभ-अलाभ, संयोग-वियोग, मित्र-शत्रु और सुख- | १०. गाँव में एक दिन और शहर में पाँच दिन से दुःख में समता-परिणाम रखना और त्रिकाल देव-वन्दना | अधिक निवास नहीं करता है। करना सामायिक है। चौबीस तीर्थंकरों को नाम, निरुक्ति और ११. पहले अपनी गुरु-परम्परा से आये हुए आगम गणानकीर्तन करते हुए मन, वचन और काय की शुद्धिपूर्वक | का विधिपर्वक अध्ययन करके गरु की आज्ञा से अन्य म करना चतुर्विशति-स्तव है। पांच परमेष्ठी और जिन- | शास्त्रों का अध्ययन करता है। प्रतिमा को कृति-कर्म के साथ, मन, वचन और काय की | १२. अध्ययन करने के बाद यदि अन्य धर्मायतन शुद्धिपूर्वक प्रणाम करना वन्दना है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और | आदि स्थान में जाने की इच्छा हो, तो गुरु से अनेक बार भाव के आलम्बन से व्रतविशेष में या आहार आदि के ग्रहण | पृच्छापूर्वक अनुज्ञा लेकर अकेला नहीं जाता है; किन्तु अन्य के समय जो दोष लगता है, उसकी मन, वचन और काय | साधुओं के साथ जाता है। अकेले विहार करने की गुरु ऐसे की सम्हाल के साथ निन्दा और गर्दा करते हुए शुद्धि करना साधु को ही अनुज्ञा देते हैं जो सूत्रार्थ का ज्ञाता है। उत्तम प्रतिक्रमण है। तथा अयोग्य नाम, स्थापना और द्रव्य आदि प्रकार से तपश्चर्या में रत है, जिसने सहनशक्ति बढ़ा ली है, का मन, वचन और काय से त्याग कर देना प्रत्याख्यान है। जो शान्त और प्रशस्त परिणामवाला है, उत्तम संहनन का विशेष नियम धारी है, सब तपस्वियों में पुराना है, अपने आचार की रक्षा ये साधु के मूल गुण हैं। इनका वह नियमित रूप से | करने में समर्थ है और जो देशकाल का पर्ण जाता है। जो इन पालन करता है। इनके सिवा उक्त धर्म के पूरक कुछ उपयोगी | गुणों का धारी नहीं है, उसके एकल विहारी होने पर गुरु का नियम और हैं जिनको जीवन में उतारने से साधुधर्म की रक्षा । अपवाद होने का, श्रुत का विच्छेद होने का और तीर्थ के मानी जाती है। वे ये हैं मलिन होने का भय बना रहता है तथा स्वैराचार की प्रवृत्ति १. जो अपने से बडे पुराने दीक्षित साध हैं. उनके सामने आने पर अभ्युत्थान और प्रणाम आदि द्वारा उनकी साधु एकल विहारी नहीं हो सकता। जो इस प्रवृत्ति को समुचित विनय करता है। प्रोत्साहन देते हैं, वे भी उक्त दोषों के भागी होते हैं। प्रायः जो २. आगमार्थ के सुनने और ग्रहण करने में रुचि रखता | गारब दोष से युक्त होता है, मायावी होता है, आलसी होता है, व्रतादि के पूर्णरूप से पालन करने में असमर्थ होता है और ३. गुरु आदि से शंका का निवारण विनयपूर्वक करता पापबुद्धि होता है, वही गुरु की अवहेलना करके अकेला रहना चाहता है। ४. श्रुत का अभ्यास बढ़ जाने पर न तो अहंकार १३. आर्यिका या अन्य स्त्री के अकेली होने पर करता है और न उसे छिपाता है। उनसे बातचीत नहीं करता और न वहाँ ठहरता ही है। ५. ज्ञान और संयम के उपकरणों के प्रति आसक्ति | १४. यदि बातचीत करने का विशेष प्रयोजन हो तो नहीं रखता। अनेक स्त्रियों के रहते हुए ही दूर से उनसे बातचीत करता ६. जिस पुस्तक का स्वाध्याय करता है, उसे स्वाध्याय | है। समाप्त होने तक के लिए ही स्वीकार करता है, अनावश्यक | १५. आर्यिकाओं या अन्य व्रती श्राविकाओं के उपाश्रय पस्तकों के संग्रह में रुचि नहीं रखता। अनुसन्धान के लिए | में नहीं ठहरता।। अधिक पुस्तकों का अवलोकन करना वर्जनीय नहीं है, | १६. अपनी प्रभाववृद्धि के लिए मन्त्र, तन्त्र और ज्योतिष परन्तु उनके संग्रह में रुचि नहीं रखता। विद्या का उपयोग नहीं करता। ७. अपने गुरु और गुरुकुल के अनुकूल प्रवृत्ति करता १७. तैल-मर्दन आदि द्वारा शरीर का संस्कार नहीं 6 जुलाई 2005 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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