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स्त्रीपरीषहजय
पं. रतनलाल कटारिया तत्वार्थसूत्र गागर (छोटा-सा ग्रंथ) होते हुए भी श्रुतसागर | में साधु ध्यानावस्थित हो जाता है। किन्तु १२ वर्ष के भीषण है। उसके नौवें अध्याय में क्षुधादि बाईस परीषह का निरूपण | दुर्भिक्ष में भद्रबाहु आचार्य अपने संघ सहित दक्षिण में चले है, जिनमें आठवां स्त्रीपरीषह बताया है। यह स्त्रीपरीषह | गये थे। दुर्भिक्ष परकृत नहीं है। वह तो प्रकृतिजन्य है, उससे चारित्र के मोह के सद्भाव में होता है। सूत्र ११ में चौदहवें | क्षुधापिपासादि परीषह होते हैं अतः उसे परीषह में गर्भित गुणस्थान तक भी कुछ परीषहों की विद्यमानता व्यक्त की है। करना चाहिए । क्षुधा-पिपासा के भेद में दुर्भिक्ष आता है। किन्तु तत्त्वतः परीषह- व्यवहार तो छठे गुणस्थान तक ही | अर्थात् क्षुधादि कैसे? दुर्भिक्षजन्य। इसी प्रकार महामारी, संभव है। अगले गुणस्थान ध्यान के होने से उनमें कारणों के प्लेग आदि भी परकृत न होने से उपसर्ग नहीं हैं, वे रोगसद्भाव की अपेक्षा से व्यवहार किया जाता हैं। फिर भी | परीषह में आते हैं। केशलुंचन,मल-परीषह में आता है। उन्हें उपचार से ही समझना चाहिए।
प्रश्न - वृद्धावस्था (जरा) को किसमें लेंगे? __ परिषह का सहना मुनियों के लिए ही बताया है या | उत्तर- रत्नकरण्डश्रावकाचार में जरा को रोग से अलग श्रावकादि के लिए भी बताया है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है | बताया है, अतः वह परीषह होने पर भी रोग-परीषह से कि यहाँ प्रमुखता से यह कथन मुनियों के लिए ही है, किन्तु | अलग है। वह एक अवस्थाविशेष है। वह प्राकृतिक है श्रावक के लिए इनका निषेध नहीं है। सभी इनका उपयोग | परकृत नहीं है, अतः परीषह में लेना चाहिए, उपसर्ग में कर सकते हैं, सभी के लिए ये लाभकारी हैं। इसी से | नहीं। रत्नकरण्ड श्रावकाचार की कारिका में स्वामी समन्तभद्र ने प्रश्न - वध-परीषह और उपसर्ग में क्या अन्तर है? सामायिक के वक्त श्रावक के लिए परीषहों के सहने का उत्तर- ताड़न-मारण, अंगच्छेदन हो जाने पर उसका उपदेश दिया है। वैसे जिस पर पड़ती है वह सब सहता ही | सहना 'वधपरीषह' है और किसी के द्वारा ऐसा करने का है। किन्तु उस वक्त आर्त्त-रौद्र परिणाम का न होना ही सहना | | आभास होते ही ध्यानावस्था में लीन हो जाना 'उपसर्ग' है। है। सदा साम्यभाव का रहना ही परीषहजय है। मुनियों के | उपसर्ग में वध ही नहीं होता, अपने पद-विरुद्ध क्रिया भी इसीलिए सदा सामायिक-चरित्र बताया है। जो प्राणी जितने | परकृत होती है। जैसे -ध्यान में लीन साधु को कोई करुणादि समय जितने अंशों में इसका आश्रय लेता है, वह उतना ही | भाव से वस्त्र-रजाई ओढा दे। सुखी होता है।
प्रश्न - साधु को प्राकृतिक आपदाओं को सहना ही ___ परीषह, उपसर्ग, काय-क्लेशादि तप और दुर्घटना | चाहिए या मेटने का प्रयत्न भी करना चाहिए? (एक्सीडेण्ट) में परस्पर क्या अन्तर है? बाह्य कारणादि का उत्तर- जहाँ तक मेटना संभव हो, वहाँ तक योग्य ही अन्तर है। आभ्यंतर की दृष्टि से अंतर नहीं, क्योंकि सहना रीति से मेटने का प्रथम प्रयत्न करना चाहिए। फिर भी न सभी में है, जो आभ्यन्तरिक है। सहने की दृष्टि से सब | मेटी जा सके, तो तब तक साम्यभाव धरना चाहिए। उपसर्ग समान हैं।
का प्रतिवाद नहीं किया जाना चाहिये यह साधु के पदप्राकृतिक आपदाओं को 'परीषह' कहते हैं। चेतन- | | विरुद्ध है (ध्यानावस्था में श्रावक के भी पद-विरुद्ध है)। अचेतन द्वारा परकृत आपदाओं को 'उपसर्ग' कहते हैं । तप | उपसर्ग-कर्ता को उसकी मनमानी कर लेने देना चाहिए और स्वयं बुद्धिपूर्वक अंगीकृत किया जाता है। दुर्घटना आकस्मिक | स्वयं ध्यानावस्था में लीन हो जाना ही विधेय है । या अबुद्धिपूर्वक होती है।
इतने प्रासंगिक विवरण के बाद अब हम शीर्षक के प्रश्न- दुर्भिक्ष को उपसर्ग कहेंगे या परीषह? खास विषय पर आते हैं। इसका नाम 'स्त्री-परीषह 'क्यों
उत्तर - "उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च | रखा? आर्यिकादि इसे कैसे सहेंगी? इस दृष्टि से क्या यह निःप्रतिकारे" में दुर्भिक्ष को उपसर्ग से जुदा बताया है। उपसर्ग | अव्यापक नहीं? अगर इसकी जगह 'काम-परीषह' नाम
10 अप्रैल 2005 जिनभाषित
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