Book Title: Jinabhashita 2005 04
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 20
________________ पूजा प्रतीकों का प्रयोग हमारे दैनिक व्यवहारों में होता है। अपने मौलिक अर्थ के प्रतीक किसी व्यक्ति, विषय, घटना, सन्दर्भ या किसी क्रिया विशेष की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करते हैं । भाषाशास्त्र के अनुसार प्रतीक भाषा का मौलिक एवं तात्त्विक आधार चिन्ह हैं, जिसमें किसी अभीष्ट अर्थ में निहित विचार, उद्वेग और इच्छा की अभिव्यक्ति होती है । प्रतीकार्थ को पृथक् कर देने पर साधनाओं में प्रयुक्त शब्दों का मूल्य नगण्य रह जाता है। नि:संदेह मनुष्य अपने सामाजिक एवं धार्मिक व्यवहारों में भाव, विचार और साधनाओं की गम्भीर अभिव्यना के हेतु प्रतीकों का प्रयोग करता है । जिस धर्म या सम्प्रदाय में जितना सशक्त आचार व्यवहार और क्रियाकाण्ड होता है, उसमें उतने ही अधिक परिमाण में प्रतीकों का व्यवहार पाया जाता है। तथ्य यह है कि जब सम्प्रदायों के मान्य आचार्य बड़े-बड़े सन्दर्भों और उपकरणों को ढोने में असमर्थता और गुरुता का अनुभव करने लगते हैं, तब वे साधनाओं के महत्व और रहस्यों को प्रतीकों द्वारा व्यक्त करने के लिये बाध्य हो जाते हैं। कहीं-कहीं तो बड़ेबड़े सन्दर्भ ही घिस - पिट कर प्रतीक रूप ग्रहण कर लेते हैं, इन प्रतीकों का रहस्य अधिक गम्भीर नहीं होता, पर इनमें विशाल अर्थ छिपा रहता है। में प्रयुक्त प्रतीक : एक विश्लेषण पौराणिक आख्यानों के मूलतथ्यों की अभिव्यक्ति अभिधेयात्मक नहीं होती, अतः उन्हें भी प्रतीकों द्वारा अभिव्यञ्जित किया जाता है । सामान्यतः प्रतीकों से अभिधेयार्थ में निहित गूढ़ अर्थ प्राप्त किये जाते हैं और अभिव्यञ्जना के वास्तविक स्तर को प्राप्त किया जाता है। कतिपय विद्वानों का मत है कि मनुष्य भावात्मक वस्तुओं की वास्तविक सत्ता का साक्षात्कार नहीं कर पाता है। अतः वह उन भावात्मक सत्ताओं की जानकारी के लिये प्रतीकों का व्यवहार करता है । Jain Education International साधारणतः प्रतीकों की उत्पत्ति के कारण उनके विशिष्ट गुण-संक्षिप्तता, स्पष्टता, प्रसादात्मकता, सौन्दर्य-ग्राहृता, अर्थसबलता, व्यञ्नात्मकता एवं रहस्योद्बोधताकता, माने गये | गुण के अनुसार प्रत्येक प्रतीक मनोवैज्ञानिक नियमों, सांस्कृतिक विशेषताओं एवं सिद्धांतों का द्योतक है। पूजा में प्रयुक्त होने वाले प्रतीकों का विश्लेषण इस प्रकार है 1. ओम् (ॐ) बीजाक्षर है, णमोकार मंत्र का 18 अप्रैल 2005 जिनभाषित - ब्र. भरत जैन, शोध छात्र वाचक है। समस्त बीजाक्षरों की उत्पत्ति णमोकार मंत्र से हुई है। सभी बीजाक्षरों में प्रधान ओम् बीज है। यह आत्म वाचक है, मूलभूत है। प्रणव वाचक मंत्र पंच परमेष्ठी होने से ओम् समस्त मंत्रों का सार तत्त्व है । अरहंता असरीरा आइरिया तह उवज्झाया मुणिणो । पढमक्खरणिप्पण्णो ओंकारो पंचपरमेट्ठी ॥ 1 ॥ अरहन्त का आदि अक्षर 'अ', अशरीर का (सिद्ध का) अक्षर 'अ', आचार्य का अक्षर 'आ' उपाध्याय का अक्षर 'उ' और मुनियों का (साधुओं का अक्षर 'म्' । इस प्रकार अ + अ + आ + उ म् इन पाँच अक्षरों के दीर्घः । 1-1-77। और इक्यडेर । 1-1-82 इन शाकटायन व्याकरण सूत्रों के अनुसार सन्धित् करने से पंचपरमेष्ठी वाचक ओम् अथवा (ओं) अक्षर सिद्ध हुआ है। एकाक्षरी ॐ - का शब्दिक अर्थ - यह तीन शब्दों में मिलकर बना है। अ (अमृत) + उ (उत्तम) + म (मंगल) अर्थात् जो अमृत है, उत्तम है, मंगल । जो मनुष्य को अमृतमय बना दे, उत्तमता तक ले जाये, मंगलमय बना दे। वह ॐ ध्वनि है । ॐ पाँच ज्ञान का भी प्रतीक है - मतिज्ञान (अभिनिबोधिक) - (अ) + श्रुत ( आगम) (आ) + अ अवधिज्ञान + (म) मन:पर्ययज्ञान + केवलज्ञान (उ) - (उत्कृष्ठ ज्ञान) अ + आ + अ + उ + म् = ओम् = ॐ ॐ तीन लोक का प्रतीक है- अधोलोक (अ) + ऊर्ध्वलोक ( उ ) + मध्यलोक (म) = ओम् = ॐ 2. ह्रीं - यह बीजाक्षर है । जो सिद्ध / सिद्धि / शुद्धता का वाचक है। यह आत्म बीज है। प्रत्येक मंत्रोच्चार के आरम्भ में ओम् के बाद उच्चरित किया जाता है। जो मंत्र की सार्थकता सिद्ध करता है। इसे सिद्ध चक्र का वाचक भी माना है । यह चौबीस तीर्थंकरों का प्रतीक बीजाक्षर है । 3. स्वस्तिक - स्वस्ति का अर्थ कल्याण और क का अर्थ है कारक। इस प्रकार स्वास्तिक का अर्थ हुआ कल्याण कारक। इस स्वस्तिक को शुभ व मंगलकारी माना गया नरसुर तिर्यड्नारकयोनिषु परिभ्रमति जीवलोकोऽम् । कुशला स्वस्तिक रचनेतीव निदर्शयति धीराणाम् ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36