Book Title: Jinabhashita 2005 04
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 26
________________ जिज्ञासा-समाधान पं. रतनलाल बैनाड़ा जिज्ञासा : क्या भाव स्त्रीवेदी मनि के आहारक शरीर जिज्ञासा- प्रतीन्द्र और अहमिन्द्रों का वर्णन शास्त्रों में संभव है? नहीं मिलता। फिर इनको क्यों माना जाता है? समाधान : उपरोक्त प्रश्न के समाधान में श्री धवला समाधान - प्रतीन्द्र और अहमिन्द्रों का वर्णन आगम पु.2 पृष्ठ 513 में इसप्रकार है में पाया जाता है, कुछ प्रमाण इस प्रकार हैं:"मणुसिणीणं भण्णमाणे..... आहारआहारमिस्सकाय तिलोयपणत्ति अधिकार-3 में इस प्रकार कहा है:जोगा णत्थि। किं कारणं। ..... अर्थ- मनुष्यनी स्त्रियों के इंदा राय-सरिच्छा जुवराय-समा हवंति पडिइंदा। आलाप कहने पर..... आहारक मिश्रकाययोग नहीं होता। | पुत्त-णिहा तेत्तीसत्तिदसा सामाणिया कलत्तं वा ॥ 65॥ प्रश्न : मनुष्य-स्त्रियों के आहारक काययोग और आहारक अर्थ : इन्द्र राजा के समान होते हैं, प्रतीन्द्र युवराज के मिश्रकाययोग नहीं होने का कारण क्या है। उत्तर : यद्यपि समान होते हैं, त्रायस्त्रिंश देव पुत्र के समान और सामानिक जिनके भावकी अपेक्षा स्त्रीवेद और द्रव्य की अपेक्षा पुरुषवेद | देव कलत्र के समान होते हैं। होता है वे (भाव स्त्री) जीव भी संयम को प्राप्त होते हैं। किन्त | इंद-समा पडिईदा तेत्तीस-सुरा हवंति तेत्तीसं ।। 69॥ द्रव्य की अपेक्षा स्त्री वेद वाले जीव संयम को प्राप्त नहीं होते अर्थ : प्रतीन्द्रों की संख्या इन्द्र के बराबर होती है और हैं क्योंकि वे सचेल अर्थात् वस्त्र सहित होते हैं। फिर भी | | लायस्त्रिंश देव गिनती में 33 होते हैं। भाव की अपेक्षा स्त्री वेदी और द्रव्य की अपेक्षा पुरुष __ जम्बूद्वीप पण्णत्ति संगहो में इस प्रकार कहा है : | पडिइंदा इंदस्स दु चदुसु वि दिसासु णायव्वा ॥ 305 ॥ वेदी संयमधारी जीवों के आहारक ऋद्धि नहीं होती। किन्तु द्रव्य और भाव इन दोनों ही वेदों की अपेक्षा से तुल्लवल्लरुवविक्कमपयावजुता हवंति ते सव्वे ॥306॥ अर्थ - इन्द्र के प्रतीन्द्र चारों ही दिशाओं में जानने पुरुषवेद वाले के आहारक ऋद्धि होती है।" चाहिए। 305 ॥ गोम्मटमार जीवकाण्ड गाथा 715 में इस प्रकार कहा वे सब तुल्य बल, रूप, विक्रम एवं प्रताप से युक्त होते हैं ॥ 306॥ मणुसिणि पमत्तविरदे आहारदुगं तु णस्थि णियमेण।। अहमिन्द्र की परिभाषा शास्त्रों में इस प्रकार कही गई अवगदवेदे मणुसिणि सण्णा भूदगदिमासेज ॥715 ॥ | है भावार्थ - मनुष्यनी के प्रमत्तविरत गुणस्थान में नियम | श्री अनगार धर्मामृत 1/46 में इसप्रकार कहा है :से आहारकद्विक नहीं है। अपगतवेद अवस्था में 'मनुष्यनी' 'अहमिन्द्रोऽस्मि नेन्द्रोऽन्यो मत्तोऽस्तीत्यात्तकत्थनाः । के जो मैथुनसंज्ञा कही है वह भूतगति न्याय की अपेक्षा कही | अहमिन्द्राख्यया ख्यातिं गतास्ते हि सुरोत्तमाः । नासूया परनिन्दा है। 715॥ वा नात्मश्लाघा न मत्सरः। केवलं सुखसाद्भूता दीव्यन्त्येते विशेषार्थ : जो द्रव्य से पुरुष और भाव से स्त्री हो | दिवौकसः । अर्थ - मेरे सिवाय और इन्द्र कौन है। मैं ही तो ऐसी मनुष्यनी में छठे गुणस्थान में आहारक शरीर और | इन्द्र हूँ। इस प्रकार अपने को इन्द्र उद्घोषित करने वाले आहारक अंगोपांग का उदय नियम से नहीं होता है। इसीलिए कल्पातीत देव अहमिन्द्र नाम से प्रख्यात हैं। न तो उनमें असूया है और न मत्सरता ही है, एवं न ये पर की निन्दा करते स्त्रीवेदी मनुष्यों के आहारक द्विक तथा वैक्रियकद्विक इन | और न अपनी प्रशंसा ही करते हैं। केवल परम विभूति के चार को छोड़कर 11 योग कहे गये हैं। गाथा में 'तु' शब्द से | साथ सुख का अनुभव करते हैं।' यह भी लेना चाहिए कि भावस्त्रीवेदी पुरुषों के मनःपर्ययज्ञान इस प्रकार प्रतीन्द्र एवं अहमिन्द्रों की मान्यता आगम के बिना चार ज्ञान तथा परिहार विशुद्धि के बिना 6 संयम सम्मत स्वीकार करनी चाहिए। संभव हैं। जिज्ञासा- मानुषोत्तर के परभाग से लेकर स्वयंप्रभ उपरोक्त प्रमाणों से स्पष्ट होता है कि जिन पुरुषों के पर्वत तक जघन्य भोगभूमि कही जाती है। क्या इस जघन्य स्त्रीभाव वेद का उदय है उनके आहारक शरीर, आहारक | भोगभूमि में पंचम गुणस्थान संभव है ? अंगोपांग, मनःपयर्यज्ञान तथा परिहार विशुद्धि चारित्र समाधान - सामान्य से तो उपरोक्त जघन्य भोगभूमि नहीं होते हैं। ' में प्रथम से लेकर चतुर्थ गुणस्थान तक ही संभव है, परन्तु 24 अप्रैल 2005 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36