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ग्रन्थ समीक्षा
तीर्थंकरस्तव एक अनोखी कृति (रचयिता : मुनिश्री अजितसागर जी)
प्रो. श्रीमती सुमन जैन इतिहास पुरुषों में तीर्थंकरों का इतिहास एक स्वर्णिम | जो धर्म तीर्थ का प्रवर्तक होता है, उसका नाम तीर्थंकर इतिहास के रूप में, जैन धर्म है। तीर्थंकर जिनका जीवन | है। तीर्थ शब्द का अर्थ घाट है। तीर्थंकर पुरुष इस भारत की वैभव और राजसी वातावरण में प्रारंभ होता है, लेकिन वे | भूमि पर धर्म पुरुष बनकर विचरण करते रहे हैं। उन्होंने इस वातावरण में रहकर कभी उस वैभव की विलासता में | भटके-अटके भव्य जीवों के लिए धर्म का मार्ग दिखाकर
भटकते हैं। तीर्थंकर तो अपने आपको संसार सागर से | उनके संसार भ्रमण को मिटाकर कल्याण मार्ग पर लगाया पार करके कल्याण का मार्ग प्राप्त करते हैं। जैन दर्शन में ऐसे | है। चौबीस तीर्थंकरों का वर्णन किया गया है। युग के आदि में | | मुनि श्री अजितसागर जी महाराज की यह तीर्थंकरस्तव तीर्थंकर ऋषभदेव हुए, जिनको ऋषभनाथ और आदिनाथ | नामक लघुकृति दिखने में छोटी है, पर इस छोटे सी गागर में भी कहा जाता है। जब भोगभूमि का अभाव हुआ और | सागर को समेटे हुए है। इस कृति में चौबीस तीर्थकरों का कर्मभूमि का प्रारंभ हुआ उस समय भोलेभाले जीवों के | परिचय सरल, सुन्दर रूप से ज्ञानोदय छन्द में रखा गया है। लिये असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प इन | भक्ति के सागर में डुबकी लगाने वाले भव्य जीवों के लिये षट्कर्मों को जिन्होंने प्रजाजनों के लिए उपदेश देकर उन्हें प्रकाश शोध संस्थान नई दिल्ली ने इस तीर्थंकरस्तव' नामक कर्म करना सिखलाया, उन्हें स्वतंत्र रूप से जीवन जीने का | अनोखी कृति का प्रकाशन किया। इस कृति को प्राप्त करके कर्म बतलाया था, ऐसे ऋषभदेव आदि चौबीस तीर्थंकर इस | प्रभभक्ति के रसिक जन इसके माध्यम से भक्ति करके भारत भूमि पर हुए।
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डिग्री कालेज, सागर(म.प्र.)
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26 अप्रैल 2005 जिनभाषित
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