Book Title: Jinabhashita 2005 04
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 23
________________ पूज्य वर्णीजी और श्री स्याद्वाद महाविद्यालय पं. अनिल जैन शास्त्री'बण्डा' भारतीय संस्कृति में प्राचीन युग से ही ज्ञानार्जन हेतु | जैन शिक्षण के लिए अपना सर्वस्व समर्पण कर दिया। आज गुरुकुलों की प्रधानता रही है। तथा आद्य युग में भी शिक्षा | यदि हम पू. वर्णी जी के सिद्वांतों एवं आदर्शगुणों पर अमल का महत्वपूर्ण स्थान है। | करके उनके अनुरूप चलें, तो हम समझेंगे कि हमने भी जब संपूर्ण भारत वर्ष में जैन शिक्षा प्राप्त करने के | वर्णी जी को कुछ समर्पित किया है। लिए एक भी केन्द्र नहीं था, तब पू. गणेशप्रसाद जी वर्णी ने जिस प्रकार सूर्य किसी व्यक्तिविशेष से भेदभाव किए श्रुत पंचमी सन् १९०५ को एक रुपए के ६४ पोस्ट कार्डों के | बिना सभी को प्रकाश प्रदान करता है, उसी प्रकार वर्णी जी माध्यम से वाराणसी में ठीक गंगा के किनारे श्री स्याद्वाद | का ज्ञान भी भेदभाव से रहित सूर्य की तरह रहा है, जिसका महाविद्यालय की स्थापना की। जो आज भी यह भवन | लाभ देश के लाखों बंधुओं ने प्राप्त किया है। प्रत्यक्षरूप से स्थित है। तथा पू. वर्णी जी ने जैन संस्कृति की | आधुनिकता की चकाचौंध में जैन संस्कृति व संस्कारों शिक्षा के उद्देश्य को पूर्ण रूप से साकार किया। श्री स्याद्वाद | को संरक्षण प्रदान करने के लिए आज पुनः हमें पू. वर्णी जी महाविद्यालय वाराणसी की ही नहीं बल्कि भारत वर्ष की | जैसी महान आत्माओं की अति आवश्यकता है, ताकि हम एक ऐसी अनोखी संस्था है, जहाँ के संस्थापक स्वयं ही बढ़ती हुई पश्चिमी सभ्यता से हमारे संस्कृति एवं संस्कारों को उसी संस्था के प्रथम छात्र थे। श्री स्याद्वाद महाविद्यालय के | खोने से बचा सकें और हमारी भावी पीढ़ी जैन संस्कृति व १०० वर्ष पूर्ण हो रहे हैं तथा शताब्दी समारोह वर्ष चल रहा | संस्कारों से विमुख न हो, हम ऐसे कदम उठाएँ। है। किसी संस्था के १०० वर्ष पूर्ण होना अपने आप में गौरव प्राचीन काल में शिक्षा पूर्ण होने के पश्चात् शिष्य से की बात है। गुरु दक्षिणा माँगी जाती थी। उदाहरणार्थ गुरु द्रोणाचार्य द्वारा प.पू. वर्णी जी द्वारा संस्थापित यह संस्था बहुत प्राचीन एकलव्य से दाहिने हाथ का अंगूठा माँगा जाना। ऐसे कई हो चुकी है। १०० वर्षों में यहाँ से निकले विद्वान संपूर्ण देश | उदाहरण पुराणों आगमों में उल्लिखित हैं। किंतु पू.वर्णी जी में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी जैन संस्कृति की पताका | तो सहज शब्दों में ही कह देते थे कि आप धर्म मार्ग पर फहरा रहे हैं। पू.आ. विद्यासागर जी के गुरु आचार्य ज्ञानसागरजी | अडिग रहो और स्वाध्याय करो, यही मेरी गुरु दक्षिणा है। (ब्र. भूरामलजी), पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य, पं. दरबारी | ऐसा सहज स्वभाव, इतना गहरा ज्ञान होते हुए भी लाल जी कोठिया, पं. हीरालालजी, पं. कैलाश चंद्र जी किञ्चित् मात्र भी मद नहीं होना, यही तो साधना, तप और इत्यादि अनेक विद्वान तथा सारे देश में फैली विद्वत्ता श्री | त्याग है। ऐसी सरलता की प्रतिमूर्ति को हम त्रिकाल प्रणाम स्याद्वाद महाविद्यालय की ही देन है। वंदन करते हैं। पू. वर्णी जी ने जैन संस्कृति की रक्षा करने हेतु तथा | श्री स्याद्वाद महाविद्यालय, वाराणसी रत्नत्रय वह अमूल्य निधि है जिसकी तुलना संसार की समस्त सम्पदा से भी की जा सकती है। रत्नत्रय की कीमत, उसकी क्षमता अद्भुत है बंधुओ! अन्तर्मुहूर्त हुआ नहीं कि यह जीव केवलज्ञान प्राप्त कर निर्वाण भी पा सकता है। भव्यत्व की पहचान भले ही सम्यग्दर्शन के साथ हो सकती है, किन्तु उसकी अभिव्यक्ति रत्नत्रय के साथ ही होगी। रत्नत्रय ही हमारी अमूल्य निधि है, इसे बचाना है। इसको लूटने के लिये कर्म चोर सर्वत्र घूम रहे हैं । जागते रहो, सो जाओगे तो तुम्हारी निधि लुट जायेगी। "सागर बूंद समाय' से साभार -अप्रैल 2005 जिनभाषित 21 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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